आलोक तोमर
कोई हरकत नहीं है पंडित। किसी बात को हवा में उड़ा देने के लिए हमारे प्रभाष जी का यह प्रिय वाक्य था। फिर कहते थे अपने को क्या फर्क पड़ता है। अभी एक डेढ़ महीने पहले तक इंटरनेट के बहुत सारे ब्लॉगों और आधी अधूरी वेबसाइटों पर प्रभाष जी को ब्राह्मणवादी, कर्मकांडी, रूढ़िवादी और कुल मिला कर पतित पत्रकार साबित करने की प्रतियोगिता चल रही थी। मैंने जितनी हैसियत थी उसका जवाब दिया और फिर उनके खिलाफ लिखे गए लेखों और अपने जवाब की प्रति उनको भेजी तो उन्होंने फोन कर के यही कहा था। अभी जब प्रभाष जी की काया उनके गांव बड़वानी जाने के पहले उनके घर में रखी थी तो उनकी बेटी और अपनी सबसे प्यारी दोस्तों में से एक सोनाल ने बड़ी बड़ी आंखों में आंसू भर कर कहा था कि मैंने पापा को बताया था कि तुम उनकी लड़ाई लड़ रहे थे और पापा ने कहा था कि आलोक तो बावला है, फोकट में टाइम खराब कर रहा है। लेकिन हमारे गुरू जी भी कम बावले नहीं थे। सही है कि 72 साल की उम्र में भी कमर नहीं झुकी थी, जवानों से ज्यादा तेजी से चलते थे, दो दिन में हजार किलोमीटर का सफर कर के, गोष्ठियां कर के, कार, जहाज, रेल जो मिल जाए उसमें चल के, पांच सितारा होटल छोड़ कर किसी दोस्त के घर जा कर ठहर के वापस आते थे और जाने के लिए आते थे। जिस रात वे दुनिया से गए, उसी शाम लखनऊ से वापस आए थे और अगली सुबह मणिपुर के लिए रवाना होना था। लौट कर एक दिन दिल्ली में बिताना था और फिर अहमदाबाद और बड़ौदरा चले जाना था। उनकी मां अभी जीवित है और कहती है कि मेरे बेटे के पांव में तो शनि है। कहीं टिकता ही नहीं। बाई पास सर्जरी करवा चुके और पेस मेकर के सहारे दिल की धड़कन को काबू में रखने वाले प्रभाष जी ने 17 साल तक अपना साप्ताहिक कॉलम कागद कारे लिखा और एक सप्ताह भी यह कॉलम रुका नहीं। और ऐसा भी नहीं कि यों हीं कलम घसीट दी हो। तथ्य, उन्हें प्रमाणित करने वाले तथ्य और यों हीं बना दिए गए तथ्यों की धमाके से पोल खोलते थे। बाई पास सर्जरी के बाद भी बांबे अस्पताल के इंटेसिव केयर यूनिट से निकल कर एक कॉलम मुझे बोल कर लिखवाया। क्रिकेट के प्रति दीवानगी थी लेकिन पागलपन नहीं। बहुत गहरे जा कर और बहुत जुड़ाव से क्रिकेट देखते थे और खेल इतना पता था कि अंपायर की उंगली उठे उसके पहले प्रभाष जी फैसला कर देते थे और आम तौर पर वह फैसला सही होता था। एक तरफ कुमार गंधर्व का संगीत, एक तरफ पिच पर चल रही लड़ाई, एक तरफ सर्वोदय, एक तरफ पत्रकारिता के शुद्वीकरण का अभियान और आखिरकार राजनीति के सांप्रदायिक होने को ले कर एक सचेत चिंता। प्रभाष जोशी ऑल इन वन थे। एक बार प्रभाष जी से कहा था कि क्या आपको लगता है कि गणेश शंकर विद्यार्थी, माखन लाल चतुर्वेदी और माधव सप्रे अगर आज उपसंपादक बनने के लिए भी परीक्षा देते तो पास हो जाते? बहुत कोप भरी नजरों से उनने देखा था और फिर ठहरी हुई आवाज में कहा था कि ये लोग थे इसलिए हम लोग हैं। भाषा और उसका व्याकरण अपने समय के हिसाब से चलता है और भाषा तो सिर्फ एक सवारी है जिस पर आपका विचार लोगाें तक पहुंचता है। लोगों की भाषा बोलोगे तो लोग सुनेंगे। भाषा का यह नया व्याकरण उन्होंने जनसत्ता के जरिए समाज को दिया और समाज ने उसे हाथों हाथ लिया। क्रिकेट के प्रति मोह ऐसा कि थके हुए आए थे और अगले दिन दो हजार किलोमीटर की और यात्रा करनी थी मगर आधी रात तक भारत आस्ट्रेलिया मैच देखते रहे। सचिन के सत्रह हजार रन पूरे हुए तो बच्चों की तरह उछल पड़े और फिर जब आखिरी ओवर की आखिरी गेंद पर भारत मैच हार गया तो उन्होंने कहा कि ये लोग हारने में एक्सपर्ट है। जिस समय सचिन तेदुंलकर को मैन आफ द मैच का इनाम मिल रहा था, प्रभाष जी कार में अस्पताल के रास्ते में आखिरी सांसे ले रहे थे। सचिन तेदुंलकर ने फोन पर कहा कि मैं शुरू से प्रभाष जी का लिखा पढ़ कर अपनी गलतियां सुधारता रहा हूं और उन्होेंने मुझे बेटे की तरह प्यार दिया। सचिन का गला भरा हुआ था और उन्हाेंने कहा कि रिकॉर्ड बनाने की मेरी खुशी पर ग्रहण लग गया और अब जब अगर मैं रिकॉर्ड बना भी पाउंगा तो मेरे उल्लास में शामिल होने के लिए प्रभाष जी नहीं होंगे। प्रभाष जोशी बैरागी नहीं थे। वे धोती भी उसी ठाठ से बांधते थे जिस अदा से तीन पीस का सूट और टाई पहनते थे। कुमार गंधर्व जैसे महान शास्त्रीय गायक से उनकी निजता थी और कुमार जी के अचानक अवसान पर उन्होंने जो लेख लिखा था उसे पढ़ कर बड़े बड़े पत्थर दिल रो दिए थे। पत्रकारिता में मेरे बड़े भाई प्रदीप सिंह उनके घर के सामने ही रहते है और बताते है कि प्रभाष जी जब मौज में आते थे तो कुमार गंधर्व के निर्गुणी भजन पूरे वाल्यूम में बजा कर पूरी कॉलोनी को सुनवाते थे। इसी पर याद आता है कि कुमार गंधर्व का तेरह साल की उम्र में गाया हुआ एक राग इंटरनेट से डाउनलोड कर के फोन पर उन्हें सुनवाया था और पहेली के अंदाज में पूछा था कि पहचानिए कौन है? एक आलाप में बता दिया था कि कुमार जी हैं और यह भजन उन्होंने पुणे के गांधर्व संगीत समारोह में गाया था। सांप्रदायिकता और देश और विश्व के तमाम विषयों पर लिखते समय प्रभाष जी ऐसे ऐसे तथ्य लिखते थे कि पढ़ने वाला चौंधिया जाएं। एक बार टीवी कैमरे के सामने लोकसभा चुनाव नतीजों के अंदाज में उन्होंने भाजपा को चुनौती दी थी और वह भी मुगल ए आजम के एक हिट डायलॉग की शैली में- बाकायदा अभिनय कर के। उन्होंने कहा था- भाजपा वालो, कांग्रेस तुम्हे जीने नहीं देगी और संघ परिवार तुम्हे मरने नहीं देगा। हिंदू होने का धर्म पुस्तक में उन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी को फर्जी हिंदू करार दिया था और इस पुस्तक की हजारों प्रतियां मध्य प्रदेश में उस समय भाजपा की सरकार चला रहे बाबू लाल गौर ने खरीद ली थी और आफत में पड़ गए थे। मगर गांधी शांति प्रतिष्ठान में प्रभाष जी को अंतिम नमन करने आडवाणी भी आए थे और उनकी आंखों में आंसू थे। अटल बिहारी वाजपेयी तो कहते ही रहे हैं कि प्रभाष जोशी हम सबसे बड़े हिंदू हैं इसलिए उनसे सध कर बात करनी पड़ती है। यहां विडंबना यह है कि अटल जी की ओर से जो श्रध्दांजलि का पत्र आया उसमें प्रभाष जी को अपना घनिष्ठ मित्र बताते हुए अटल जी ने उनका नाम प्रभात जोशी लिखा था। जाहिर है कि यह पत्र किसी अफसर ने तैयार किया होगा।
प्रभाष जोशी अकारण नहीं जिए। वे आखिरी सांस तक जिन सरोकारों से देश और समाज के चरित्र का वास्ता है, उनसे जुड़े रहे और आखिरकार बहुत खामोशी से अपनी पारी घोषित कर दी। कल दिन भर टीवी कैमरो के सामने और फिर अपने टीवी चैनल में कहता रहा हूं और फिर कह रहा हूं कि दूसरा प्रभाष जोशी फिलहाल दिखाई नहीं देता। प्रभाष जोशी बनने के लिए कलेजा चाहिए। प्रार्थना कीजिए कि मेरी यह निराशा गलत साबित हो।
07 November 2009
28 October 2009
मदुरै का कर्मठ महात्मा- इस शख्स को मेरा सलाम
हमारे जीवन में अचानक कुछ घटनाएं ऐसी होती है, जो हमें झंकझोर कर रख देती है. हम थोड़ा सा ठिठकते हैं, थोड़ा सोचते हैं, फिर आगे बढ़ जाते हैं. मगर कोई-कोई शख्स ऐसा भी होता है, जो ठिठकता है, सोचता है, फिर रुक जाता है. कृष्णन ऐसे ही हैं....त्यागपथ पर चलने वाले कृष्णन को अशोक का सलाम....
मदुराई के एक युवक एन कृष्णन ने वह कर दिखाया जो कई लोग या तो सोच ही नहीं पाते, अथवा सिर्फ़ सोचकर रह जाते हैं। मदुरै का यह कर्मठ महात्मा, पिछले सात साल से रोज़ाना दिन में तीन बार शहर में घूम-घूमकर ऐसे रोगियों, विक्षिप्तों और बेसहारा लोगों को खाना खिलाता है। मात्र 30 वर्ष की उम्र में "अक्षयपात्र" नामक ट्रस्ट के जरिये वे यह सेवाकार्य चलाते हैं।
अक्षयपात्र ट्रस्ट की रसोई में झांककर जब हम देखते हैं, तो पाते हैं कि चमचमाते हुए करीने से रखे बर्तन, शुद्ध दाल, चावल, सब्जियाँ और मसाले… ऐसा लगता है कि हम किसी 5 सितारा होटल के किचन में हैं, और हो भी क्यों ना, आखिर एन कृष्णन बंगलोर के एक 5 सितारा होटल के "शेफ़" रह चुके हैं (इतने बड़े होटल के शेफ़ की तनख्वाह जानकर क्या करेंगे)। कृष्णन बताते हैं कि आज सुबह उन्होंने दही चावल तथा घर के बने अचार का मेनू तय किया है, जबकि शाम को वे इडली-सांभर बनाने वाले हैं… हम लोग भी तो एक जैसा भोजन नहीं खा सकते, उकता जाते हैं, ऐसे में क्या उन लोगों को भी अलग-अलग और ताज़ा खाना मिलने का हक नहीं है?"। कृष्णन की मदद के लिये दो रसोईये हैं, तीनों मिलकर नाश्ता तथा दोपहर और रात का खाना बनाते हैं, और अपनी गाड़ी लेकर भोजन बाँटते हैं, न सिर्फ़ बाँटते हैं बल्कि कई मनोरोगियों और विकलांगों को अपने हाथ से खिलाते भी हैं।
कृष्णन कहते हैं कि "मैं साधारण भिखारियों, जो कि अपना खयाल रख सकते हैं उन्हें भोजन नहीं करवाता, लेकिन ऐसे बेसहारा जो कि विक्षिप्त अथवा मानसिक रोगी हैं यह हमसे पैसा भी नहीं मांगते, और न ही उन्हें खुद की भूख-प्यास के बारे में कुछ पता होता है, ऐसे लोगों के लिये मैं रोज़ाना भोजन ले जाता हूं"। चौराहों, पार्कों और शहर के विभिन्न ठिकानों पर उनकी मारुति वैन रुकती है तो जो उन्हें नहीं जानते ऐसे लोग उन्हें हैरत से देखते हैं। लेकिन "पेट की भूख और कृष्णन द्वारा दिये गये मानवीय संवेदना के स्पर्श" ने अब मानसिक रोगियों में भी इतनी जागृति ला दी है कि वे सफ़ेद मारुति देखकर समझ जाते हैं कि अब उन्हें खाना मिलने वाला है। कहीं-कहीं किसी व्यक्ति की हालत इतनी खराब होती है कि वह खुद ठीक से नहीं खा सकता, तब कृष्णन उसे अपने हाथों से खिलाते हैं। कृष्णन बताते हैं कि उन्होंने ऐसे कई बेसहारा मानसिक रोगी भी सड़कों पर देखे हैं, जिन्होंने 3-4 दिन से पानी ही नहीं पिया था, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था पानी कहाँ मिलेगा, और पीने का पानी किससे और कैसे माँगा जाये।
इतना पुण्य का काम करने के बावजूद भोजन करने वाला व्यक्ति, कृष्णन को धन्यवाद तक नहीं देता, क्योंकि उसे पता ही नहीं होता कि कृष्णन उनके लिये क्या कर रहे हैं। सात वर्ष पूर्व की वह घटना आज भी उन्हें याद है जब कृष्णन अपने किसी काम से मदुराई नगर निगम आये थे और बाहर एक पागल व्यक्ति बैठा अपना ही मल खा रहा था, कृष्णन तुरन्त दौड़कर पास की दुकान से दो इडली लेकर आये और उसे दीं… जब उस पागल ने उसे खाया अचानक उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आई… कृष्णन कहते हैं कि "उसी दिन मैंने निश्चय कर लिया कि अब ऐसे लोगों के लिये भोजन की व्यवस्था मुझे ही करना है, उस भूखे पागल के चेहरे पर आई हुई मुस्कुराहट ही मेरा धन्यवाद है, मेरा मेहनताना है…"।
इस सारी प्रक्रिया में कृष्णन को 12,000 रुपये प्रतिदिन का खर्च आता है (भोजन, सब्जियाँ, रसोईयों की तनख्वाह, मारुति वैन का खर्च आदि)। वे कहते हैं कि अभी मेरे पास 22 दिनों के लिये दानदाता मौजूद हैं जो प्रतिमाह किसी एक तारीख के भोजन के लिये 12,000 रुपये रोज भेजते हैं, कुछ रुपया मेरे पास सेविंग है, जिसके ब्याज आदि से किसी तरह मेरा काम 7 साल से लगातार चल रहा है। इन्फ़ोसिस और TVS कम्पनी ने उन्हें 3 एकड़ की ज़मीन दी है, जिस पर वे ऐसे अनाथ लोगों के लिये एक विश्रामगृह बनवाना चाहते हैं। सात साल पहले का एक बिल दिखाते हुए कृष्णन कहते हैं कि "किराने का यह पहला बिल मेरे लिये भावनात्मक महत्व रखता है, आज भी मैं खुद ही सारा अकाउंट्स देखता हूं और दानदाताओं को बिना माँगे ही एक-एक पैसे का हिसाब भेजता हूं। आर्थिक मंदी की वजह से दानदाताओं ने हाथ खींचना शुरु कर दिया है, लेकिन मुझे बाकी के आठ दिनों के लिये भी दानदाता मिल ही जायेंगे, ऐसा विश्वास है"। इलेक्ट्रानिक मीडिया में जबसे उन्हें कवरेज मिला और कुछ पुरस्कार और सम्मान आदि मिले तब से उनकी लोकप्रियता बढ़ गई, और उन्हें अपने काम के लिये रुपये पैसे की व्यवस्था, दान आदि मिलने में आसानी होने लगी है।
कृष्णन अभी तक अविवाहित हैं, और उनकी यह शर्त है कि जिसे भी मुझसे शादी करना हो, उसे मेरा यह जीवन स्वीकार करना होगा, चाहे किसी भी तरह की समस्याएं आयें। कृष्णन मुस्कराते हुए कहते हैं कि "…भला ऐसी लड़की आसानी से कहाँ मिलेगी, जो देखे कि उसका पति दिन भर दूसरों के लिये खाना बनाता रहे और घूम-घूमकर बाँटता रहे…"। प्रारम्भ में उनके माता-पिता ने भी उनकी इस सेवा योजना का विरोध किया था, लेकिन कृष्णन दृढ़ रहे, और अब वे दोनों इस काम में उनका हाथ बँटाते हैं, इनकी माँ रोज का मेनू तैयार करती है, तथा पिताजी बाकी के छोटे-मोटे काम देखते हैं। पिछले 7 साल में गर्मी-ठण्ड-बारिश कुछ भी हो, आज तक एक दिन भी उन्होंने इस काम में रुकावट नहीं आने दी है। जून 2002 से लेकर अक्टूबर 2008 तक वे आठ लाख लोगों को भोजन करवा चुके थे। रिश्तेदार, मित्र और जान-पहचान वाले आज भी हैरान हैं कि फ़ाइव स्टार के शेफ़ जैसी आलीशान नौकरी छोड़कर उन्होंने ऐसा क्यों किया, कृष्णन का जवाब होता है… "बस ऐसे ही, एक दिन अन्दर से आवाज़ आई इसलिये…"।
कृष्णन जैसे लोग ही असली महात्मा हैं, जिनके काम को भरपूर प्रचार दिया जाना चाहिये, ताकि "समाज की इन अगरबत्तियों" की सुगन्ध दूर-दूर तक फ़ैले, मानवता में लोगों का विश्वास जागे, तथा यह भावना मजबूत हो कि दुनिया चाहे कितनी भी बुरी बन चुकी हो, अभी भी ऐसा कुछ बाकी है कि जिससे हमें संबल मिलता है।
(आभारः विस्फोट.कॉम)
मदुराई के एक युवक एन कृष्णन ने वह कर दिखाया जो कई लोग या तो सोच ही नहीं पाते, अथवा सिर्फ़ सोचकर रह जाते हैं। मदुरै का यह कर्मठ महात्मा, पिछले सात साल से रोज़ाना दिन में तीन बार शहर में घूम-घूमकर ऐसे रोगियों, विक्षिप्तों और बेसहारा लोगों को खाना खिलाता है। मात्र 30 वर्ष की उम्र में "अक्षयपात्र" नामक ट्रस्ट के जरिये वे यह सेवाकार्य चलाते हैं।
अक्षयपात्र ट्रस्ट की रसोई में झांककर जब हम देखते हैं, तो पाते हैं कि चमचमाते हुए करीने से रखे बर्तन, शुद्ध दाल, चावल, सब्जियाँ और मसाले… ऐसा लगता है कि हम किसी 5 सितारा होटल के किचन में हैं, और हो भी क्यों ना, आखिर एन कृष्णन बंगलोर के एक 5 सितारा होटल के "शेफ़" रह चुके हैं (इतने बड़े होटल के शेफ़ की तनख्वाह जानकर क्या करेंगे)। कृष्णन बताते हैं कि आज सुबह उन्होंने दही चावल तथा घर के बने अचार का मेनू तय किया है, जबकि शाम को वे इडली-सांभर बनाने वाले हैं… हम लोग भी तो एक जैसा भोजन नहीं खा सकते, उकता जाते हैं, ऐसे में क्या उन लोगों को भी अलग-अलग और ताज़ा खाना मिलने का हक नहीं है?"। कृष्णन की मदद के लिये दो रसोईये हैं, तीनों मिलकर नाश्ता तथा दोपहर और रात का खाना बनाते हैं, और अपनी गाड़ी लेकर भोजन बाँटते हैं, न सिर्फ़ बाँटते हैं बल्कि कई मनोरोगियों और विकलांगों को अपने हाथ से खिलाते भी हैं।
कृष्णन कहते हैं कि "मैं साधारण भिखारियों, जो कि अपना खयाल रख सकते हैं उन्हें भोजन नहीं करवाता, लेकिन ऐसे बेसहारा जो कि विक्षिप्त अथवा मानसिक रोगी हैं यह हमसे पैसा भी नहीं मांगते, और न ही उन्हें खुद की भूख-प्यास के बारे में कुछ पता होता है, ऐसे लोगों के लिये मैं रोज़ाना भोजन ले जाता हूं"। चौराहों, पार्कों और शहर के विभिन्न ठिकानों पर उनकी मारुति वैन रुकती है तो जो उन्हें नहीं जानते ऐसे लोग उन्हें हैरत से देखते हैं। लेकिन "पेट की भूख और कृष्णन द्वारा दिये गये मानवीय संवेदना के स्पर्श" ने अब मानसिक रोगियों में भी इतनी जागृति ला दी है कि वे सफ़ेद मारुति देखकर समझ जाते हैं कि अब उन्हें खाना मिलने वाला है। कहीं-कहीं किसी व्यक्ति की हालत इतनी खराब होती है कि वह खुद ठीक से नहीं खा सकता, तब कृष्णन उसे अपने हाथों से खिलाते हैं। कृष्णन बताते हैं कि उन्होंने ऐसे कई बेसहारा मानसिक रोगी भी सड़कों पर देखे हैं, जिन्होंने 3-4 दिन से पानी ही नहीं पिया था, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था पानी कहाँ मिलेगा, और पीने का पानी किससे और कैसे माँगा जाये।
इतना पुण्य का काम करने के बावजूद भोजन करने वाला व्यक्ति, कृष्णन को धन्यवाद तक नहीं देता, क्योंकि उसे पता ही नहीं होता कि कृष्णन उनके लिये क्या कर रहे हैं। सात वर्ष पूर्व की वह घटना आज भी उन्हें याद है जब कृष्णन अपने किसी काम से मदुराई नगर निगम आये थे और बाहर एक पागल व्यक्ति बैठा अपना ही मल खा रहा था, कृष्णन तुरन्त दौड़कर पास की दुकान से दो इडली लेकर आये और उसे दीं… जब उस पागल ने उसे खाया अचानक उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आई… कृष्णन कहते हैं कि "उसी दिन मैंने निश्चय कर लिया कि अब ऐसे लोगों के लिये भोजन की व्यवस्था मुझे ही करना है, उस भूखे पागल के चेहरे पर आई हुई मुस्कुराहट ही मेरा धन्यवाद है, मेरा मेहनताना है…"।
इस सारी प्रक्रिया में कृष्णन को 12,000 रुपये प्रतिदिन का खर्च आता है (भोजन, सब्जियाँ, रसोईयों की तनख्वाह, मारुति वैन का खर्च आदि)। वे कहते हैं कि अभी मेरे पास 22 दिनों के लिये दानदाता मौजूद हैं जो प्रतिमाह किसी एक तारीख के भोजन के लिये 12,000 रुपये रोज भेजते हैं, कुछ रुपया मेरे पास सेविंग है, जिसके ब्याज आदि से किसी तरह मेरा काम 7 साल से लगातार चल रहा है। इन्फ़ोसिस और TVS कम्पनी ने उन्हें 3 एकड़ की ज़मीन दी है, जिस पर वे ऐसे अनाथ लोगों के लिये एक विश्रामगृह बनवाना चाहते हैं। सात साल पहले का एक बिल दिखाते हुए कृष्णन कहते हैं कि "किराने का यह पहला बिल मेरे लिये भावनात्मक महत्व रखता है, आज भी मैं खुद ही सारा अकाउंट्स देखता हूं और दानदाताओं को बिना माँगे ही एक-एक पैसे का हिसाब भेजता हूं। आर्थिक मंदी की वजह से दानदाताओं ने हाथ खींचना शुरु कर दिया है, लेकिन मुझे बाकी के आठ दिनों के लिये भी दानदाता मिल ही जायेंगे, ऐसा विश्वास है"। इलेक्ट्रानिक मीडिया में जबसे उन्हें कवरेज मिला और कुछ पुरस्कार और सम्मान आदि मिले तब से उनकी लोकप्रियता बढ़ गई, और उन्हें अपने काम के लिये रुपये पैसे की व्यवस्था, दान आदि मिलने में आसानी होने लगी है।
कृष्णन अभी तक अविवाहित हैं, और उनकी यह शर्त है कि जिसे भी मुझसे शादी करना हो, उसे मेरा यह जीवन स्वीकार करना होगा, चाहे किसी भी तरह की समस्याएं आयें। कृष्णन मुस्कराते हुए कहते हैं कि "…भला ऐसी लड़की आसानी से कहाँ मिलेगी, जो देखे कि उसका पति दिन भर दूसरों के लिये खाना बनाता रहे और घूम-घूमकर बाँटता रहे…"। प्रारम्भ में उनके माता-पिता ने भी उनकी इस सेवा योजना का विरोध किया था, लेकिन कृष्णन दृढ़ रहे, और अब वे दोनों इस काम में उनका हाथ बँटाते हैं, इनकी माँ रोज का मेनू तैयार करती है, तथा पिताजी बाकी के छोटे-मोटे काम देखते हैं। पिछले 7 साल में गर्मी-ठण्ड-बारिश कुछ भी हो, आज तक एक दिन भी उन्होंने इस काम में रुकावट नहीं आने दी है। जून 2002 से लेकर अक्टूबर 2008 तक वे आठ लाख लोगों को भोजन करवा चुके थे। रिश्तेदार, मित्र और जान-पहचान वाले आज भी हैरान हैं कि फ़ाइव स्टार के शेफ़ जैसी आलीशान नौकरी छोड़कर उन्होंने ऐसा क्यों किया, कृष्णन का जवाब होता है… "बस ऐसे ही, एक दिन अन्दर से आवाज़ आई इसलिये…"।
कृष्णन जैसे लोग ही असली महात्मा हैं, जिनके काम को भरपूर प्रचार दिया जाना चाहिये, ताकि "समाज की इन अगरबत्तियों" की सुगन्ध दूर-दूर तक फ़ैले, मानवता में लोगों का विश्वास जागे, तथा यह भावना मजबूत हो कि दुनिया चाहे कितनी भी बुरी बन चुकी हो, अभी भी ऐसा कुछ बाकी है कि जिससे हमें संबल मिलता है।
(आभारः विस्फोट.कॉम)
05 May 2009
कामरेड की मां
कामरेडअब आप आगे क्या करेंगे ? मैं जंगल लौट जाऊंगा । लेकिन आपकी उम्र और सेहत जंगल की स्थितियों को सह पायेगी ! सवाल सहने या जीने का नहीं है । मै जंगल में मरना चाहता हूं । शहर में मेरा दम यूं ही घुट जाएगा। यहां मैं ज्यादा अकेला हूं । वहां जो भी काम बनेगा करुंगा...कम से कम जिस सपने को पाल कर यहां तक पहुंचे हैं, वह तो नहीं मरा है । शहर में तो जीने के लिये अब कुछ भी नहीं बचा । न मां...न सपने ।
ये वाक्या ठीक एक साल पहले का है । कामरेड नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी का पोलित ब्यूरो सदस्य है। दो साल पहले कामरेड की 82 साल की मां की हालत बिगडती गयी तो भूमिगत गतिविधियो को छोड़कर या कहें लगातार आंध्र प्रदेश से बंगाल-बिहार में अपने नक्सली संगठन को मजबूती देने में लगे कामरेड को मां की सेवा में शहर लौटना पड़ा । क्योंकि बाकी तीनों भाई या छह बहनें देश की मुख्यधारा से जुड़ कर उस व्यवस्था में जीने की जद्दोजहद कर रहे थे, जहां नौकरी से लेकर उनके अपने परिवार इस सच को नही मान पा रहे थे कि बुढी हो चली मां की सेवा के लिये भी वक्त निकाला जाना चाहिए ।
आखिरकार पार्टी ने निर्णय लिया कि कामरेड को मां की सेवा के लिये घर लौटना चाहिये । काफी चर्चा और तर्क इस बात को लेकर पार्टी में हुये कि किसी भी कामरेड के लिये अगर मां ही सबकुछ हो जायेगी तो उस माओवादी आंदोलन का क्या होगा, जिसने हर मां के लिये एक खूबसूरत दुनिया का सपना उन तमाम कामरेड में पैदा किया है, जो अपनी मां को छोड़कर सपने को सच बनाने में जान गंवा रहे हैं । कामरेड के घर लौटने के वक्त तर्क यह भी आया कि अगर सपना बेटे ने पाला है तो इसमें मां का क्या कसूर । जिन्दगी के आखिरी पड़ाव में अगर मां को बेटे की जरुरत है, तो कामरेड को लौटना चाहिये। पार्टी में बहस इस हद तक भी गयी कि 82 साल की उम्र में कई बीमारियो से लैस मां ज्यादा दिन नही टिकेगी । ऐसे में जल्द ही कामरेड लौट कर संगठन का कामकाज संभाल भी सकता है।
लेकिन कामरेड की मां सेवा ने असर दिखाया और जिन बेटे बेटियो के हंसते-खेलते परिवार ने मान लिया था कि मां एक महीने से ज्यादा जिन्दा रह ही नहीं सकती, वह मां कामरेड के घर लौटने पर सवा साल तक न सिर्फ जीवित रही, बल्कि 27 साल बाद घर लौटे कामरेड बेटे के साथ हर क्षण गुजारने के दौरान कामरेड के सपने को ही अपना सच भी मानने लगी।
कामरेड के मुताबिक, मां अगर इलाज जारी रखती तो एक-दो साल तो और जिन्दा रह सकती थी । लेकिन दिसंबर 2007 को एक दिन अचानक मां ने निर्णय लिया कि वह अब डॉक्टर से अपना इलाज नहीं करवायेंगी । और चार महीने बाद अप्रैल 2008 को मां की मौत हो गयी । इलाज न करवाने वाले चार महीने में मां ने कामरेड से उसके सपनो को लेकर हर उस तरह के सवाल किये, जो बचपन में कामरेड ने अपनी मां से किये होगे। अगर सपने न हों तो जीने का मतलब बेमानी है। सपने तो बहलाने और फुसलाने के लिये होते हैं लेकिन यह जिन्दगी बन जायें, यह कामरेड ने कैसे सीख लिया । मां ने बचपन में तो ऐसा कोई किस्सा नहीं सुनाया, जिसे बेटा गांठ बनाकर जीना शुरु कर दे।
वो कौन से लोग हैं, जिनके बीच 27 साल कामरेड बेटे ने गुजार दिये । क्यों कभी मां या भाई बहनों को देखने.... उनसे बातचीत कर प्यार करने की इच्छा कामरेड बेटे को नहीं हुई। घर के सबसे बड़े बेटे ने आखिर एक दिन सरकारी नौकरी छोड़ कर क्यों कामरेड का नाम अपना लिया। मां इतनी बुरी तो नहीं थी। इस तरह के ढेरों सवाल उन आखिरी चार महिनों में मां लगातार कामरेड से पूछती रहती और दिन-रात हर सवाल का जबाब भी 60 साल का कामरेड 82 साल की मां को देता रहता । अप्रैल 2007 से लेकर अप्रैल 2008 तक जब मां की मौत हुई...इस एक साल में कामरेड ने मां को अपने संजोये सपनों का हर ताना-बाना उघाड़ कर बताया, जो पिछले 27 सालो में कामरेड ने गांव,जंगल, आदिवासी, गरीब- पिछड़ों के बीच काम करते हुये किया। सिर्फ दो जून की रोटी की सहूलियत और परिवार बनाने का सुकुन कामरेड को क्यों नहीं बांध पाया..यह सारे सवाल मां के थे, जिसका महज जबाब देना भर जरुरी नहीं था, बल्कि कामरेड के लिये जीवन का यह सबसे बडा संघर्ष था कि 27 साल पहले जब उसकी उम्र 33 की थी और 29 साल की उम्र में ही जब उसकी मेहनत से उसे सरकारी नौकरी मिल गयी तो महज चार साल बाद ही वह घर-मां सबकुछ छोड़कर क्यो जंगल की दिशा में भाग गया।
कामरेड को समझाना था कि वह पलायनवादी नहीं है। वह जिम्मेदारी छोड़कर भागा नहीं था, बल्कि बड़ी जिम्मेदारी का एहसास उसके भीतर समा गया था । जिसे शायद मां ने बेटे के दिल में बचपन से संजोया होगा। घर का परिवेश और शिक्षा-दिक्षा के असर ने भी उस लौ का काम किया होगा, जिसे उसने 27 साल से सपने की तरह संजोया है। मां के सवालों का जबाब कामरेड ने उस हिम्मत से भी जोड़ा, जिसे मां ने दिया । कामरेड कभी रिटायर नहीं होता । लेकिन 27 साल पहले की सरकारी नौकरी करते-करते तो मै भी रिटायर हो जाता और उम्र का गणित सरकारी तौर पर भी मुझे रिटायर कर देता । शायद कामरेड के इसी तर्क ने मां के भीतर भी संघर्ष की लौ जलायी होगी। इसीलिये कामरेड बेटे को घर की चारदीवारी में न बांधने की सोच ने ही डाक्टरी इलाज को पूरी तरह बंद करा दिया।
आखिरी चार महिनों में वहीं मां कामरेड बेटे को सपनो को पूरा करने के लिये उकसती रही, जिसे 27 साल पहले मां ने ढकोसला माना था । बेटे के घर छोडने के निर्णय को जिम्मेदारी से भागना करार दिया था । कोई दूसरा बेटा कामरेड के चक्कर में न आ जाये, इसके लिये मां ने बडे बेटे को सबसे बडा नालायक करार दिया था। लेकिन कामरेड के सपने अब अधूरे ना रह जायें. इसके लिये मां खुद मरने की राह पर चल पड़ी । बिना इलाज अप्रैल 2008 में मां की मौत हो गयी । कामरेड अब क्या करेगा, यह सवाल पूछना जायज नहीं था लेकिन उस दिन मां के अंतिम संसकार के बाद कामरेड के शहरी साथियो ने पूछा था । और मां के मरने के ठीक एक साल बाद संयोग से कामरेड से फिर मुलाकात हुई तो मां की आखिरी यादो पर चर्चा के बीच ही कामरेड ने मां को भी राजनीतिक दांव पर लगाने का जिक्र कर दिया । मेरी मां को छोडो, तुम तो पत्रकार हो वरुण की मां का उत्तर प्रदेश में क्या असर है । और राहुल की मां का देश पर क्या असर है । मैने कहा वरुण की मां मेनका जरुर राजनीतिक दांव पर है लेकिन राहुल अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है कि वह मां के आसुओं का सवाल उठा सके । राजनीतिक तौर पर अभी राहुल मां का बेटा ही है । लेकिन कामरेड आपकी चर्चा में अक्सर उस बंदूक का जिक्र नही होता, जिसपर सरकार और समाज दोनो सवालिया निशान लगाते हैं । क्या आपकी मां ने कभी यह सवाल नहीं उठाया या आपने कभी इसका जिक्र नहीं किया। खुलकर बताया। लेकिन उस तरह नहीं जैसे सरकार बताती है। देश के सामने माओवाद प्रभावित इलाको को भारत के नकशे पर रख कर देख लें । हमारे हथियारबंद कामरेडों की संख्या को देश के सुरक्षाकर्मियों की संख्या के सामने लिख कर देख लें । सभी बेहद छोटे हैं । रंग भी और संख्या भी । लेकिन सवाल देश के भीतर के कई देशों का है । हर राजनीतिक दल आज चुनाव में अपनी जीत का रंग अपने प्रदेश में रंगता है । अगर उन आंखो से देश का नक्शा देखेंगे तो माओवाद का रंग कांग्रेस,बीजेपी,वामपंथी या किसी भी राजनीतिक दल के रंग से ज्यादा बडा हमारे आंदोलन का इलाका नजर आयेगा । ठीक इसी तरह एक देश का सवाल सुरक्षाकर्मियो को लेकर भी कहां है । ज्यादा सुरक्षाकर्मी तो नेता और रईसों को ही सुरक्षा देने में लगे रहते है । फिर हर राज्य की अलग अलग सरकार अपनी सहूलियत के लिये सुरक्षाकर्मियो का प्रयोग करती हैं । अगर आपको सुरक्षाकर्मियों का कामकाज देखना है, तो तेलगांना से लेकर बंगाल-बिहार तक के हमारे दंडकाराण्य या सरकारी रेड कारीडोर में देख सकते हैं। यहा प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियो की परियोजनाओ की सुरक्षा में ही समूची फौज सरकार लगाये हुये है। झारखंड,छत्तीसगढ,उडीसा में तो अर्से से यह सब चल रहा है । नया नजारा बंगाल की वामपंथी सरकार ने भी अपना लिया है । नंदीग्राम के बाद लालगढ के इलाके में जा कर देखे, वहा सुरक्षाकर्मियो की तादाद आपको कश्मीर की याद दिला देगी। इन जगहो पर दो जून की रोटी मिलती नही है, लेकिन पचास हजार का बारुद से भरा लांचर सुरक्षाकर्मियो के पास पड़ा रहता है । आप झारखंड में जाइये । वहां के हालात को देखिये ।
इन हालातों पर मैंने मां को मरने से पहले सबकुछ बताया। आप कह सकते है कि इन हालात पर देश का कोई भी शख्स भरोसा कर ले तो उसे अपने होने पर शर्म आने लगेगी। हो सकता है मेरी मां को भी शर्म आने लगी है क्योकि झारखंड में अब भी 25 पैसे की मजदूरी भी होती है । और 25 पैसे में पेट भी भरता है । आप वहा 25 पैसे के अर्थशास्त्र में साफ पानी,स्कूल,डाक्टर की कल्पना भी कर सकते है । मां के इलाज में डॉक्टर को हर हफ्ते दवाई समेत पांच सौ रुपये देने पडते थे । उसके दूसरो बेटो के पास पैसा था, वक्त नहीं था इसलिये मां का इलाज तो करा ही सकते थे। लेकिन सवाल है, जिस दिन मां ने मेरे संघर्ष और सपने को मान्यता दे कर डाक्टरी इलाज बंद करने के निर्णय लिया उस दिन मुझे उनका चेहरा चमकता हुआ लगा । वह संतुष्ट थी कि मेरे सपनो का कोई सौदागर नहीं है बल्कि संघर्ष ही सपना है ।
{जी न्यूज के प्राइम टाइम एंकर और संपादक एवं वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग prasunbajpai.itzmyblog.com से साभार}
ये वाक्या ठीक एक साल पहले का है । कामरेड नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी का पोलित ब्यूरो सदस्य है। दो साल पहले कामरेड की 82 साल की मां की हालत बिगडती गयी तो भूमिगत गतिविधियो को छोड़कर या कहें लगातार आंध्र प्रदेश से बंगाल-बिहार में अपने नक्सली संगठन को मजबूती देने में लगे कामरेड को मां की सेवा में शहर लौटना पड़ा । क्योंकि बाकी तीनों भाई या छह बहनें देश की मुख्यधारा से जुड़ कर उस व्यवस्था में जीने की जद्दोजहद कर रहे थे, जहां नौकरी से लेकर उनके अपने परिवार इस सच को नही मान पा रहे थे कि बुढी हो चली मां की सेवा के लिये भी वक्त निकाला जाना चाहिए ।
आखिरकार पार्टी ने निर्णय लिया कि कामरेड को मां की सेवा के लिये घर लौटना चाहिये । काफी चर्चा और तर्क इस बात को लेकर पार्टी में हुये कि किसी भी कामरेड के लिये अगर मां ही सबकुछ हो जायेगी तो उस माओवादी आंदोलन का क्या होगा, जिसने हर मां के लिये एक खूबसूरत दुनिया का सपना उन तमाम कामरेड में पैदा किया है, जो अपनी मां को छोड़कर सपने को सच बनाने में जान गंवा रहे हैं । कामरेड के घर लौटने के वक्त तर्क यह भी आया कि अगर सपना बेटे ने पाला है तो इसमें मां का क्या कसूर । जिन्दगी के आखिरी पड़ाव में अगर मां को बेटे की जरुरत है, तो कामरेड को लौटना चाहिये। पार्टी में बहस इस हद तक भी गयी कि 82 साल की उम्र में कई बीमारियो से लैस मां ज्यादा दिन नही टिकेगी । ऐसे में जल्द ही कामरेड लौट कर संगठन का कामकाज संभाल भी सकता है।
लेकिन कामरेड की मां सेवा ने असर दिखाया और जिन बेटे बेटियो के हंसते-खेलते परिवार ने मान लिया था कि मां एक महीने से ज्यादा जिन्दा रह ही नहीं सकती, वह मां कामरेड के घर लौटने पर सवा साल तक न सिर्फ जीवित रही, बल्कि 27 साल बाद घर लौटे कामरेड बेटे के साथ हर क्षण गुजारने के दौरान कामरेड के सपने को ही अपना सच भी मानने लगी।
कामरेड के मुताबिक, मां अगर इलाज जारी रखती तो एक-दो साल तो और जिन्दा रह सकती थी । लेकिन दिसंबर 2007 को एक दिन अचानक मां ने निर्णय लिया कि वह अब डॉक्टर से अपना इलाज नहीं करवायेंगी । और चार महीने बाद अप्रैल 2008 को मां की मौत हो गयी । इलाज न करवाने वाले चार महीने में मां ने कामरेड से उसके सपनो को लेकर हर उस तरह के सवाल किये, जो बचपन में कामरेड ने अपनी मां से किये होगे। अगर सपने न हों तो जीने का मतलब बेमानी है। सपने तो बहलाने और फुसलाने के लिये होते हैं लेकिन यह जिन्दगी बन जायें, यह कामरेड ने कैसे सीख लिया । मां ने बचपन में तो ऐसा कोई किस्सा नहीं सुनाया, जिसे बेटा गांठ बनाकर जीना शुरु कर दे।
वो कौन से लोग हैं, जिनके बीच 27 साल कामरेड बेटे ने गुजार दिये । क्यों कभी मां या भाई बहनों को देखने.... उनसे बातचीत कर प्यार करने की इच्छा कामरेड बेटे को नहीं हुई। घर के सबसे बड़े बेटे ने आखिर एक दिन सरकारी नौकरी छोड़ कर क्यों कामरेड का नाम अपना लिया। मां इतनी बुरी तो नहीं थी। इस तरह के ढेरों सवाल उन आखिरी चार महिनों में मां लगातार कामरेड से पूछती रहती और दिन-रात हर सवाल का जबाब भी 60 साल का कामरेड 82 साल की मां को देता रहता । अप्रैल 2007 से लेकर अप्रैल 2008 तक जब मां की मौत हुई...इस एक साल में कामरेड ने मां को अपने संजोये सपनों का हर ताना-बाना उघाड़ कर बताया, जो पिछले 27 सालो में कामरेड ने गांव,जंगल, आदिवासी, गरीब- पिछड़ों के बीच काम करते हुये किया। सिर्फ दो जून की रोटी की सहूलियत और परिवार बनाने का सुकुन कामरेड को क्यों नहीं बांध पाया..यह सारे सवाल मां के थे, जिसका महज जबाब देना भर जरुरी नहीं था, बल्कि कामरेड के लिये जीवन का यह सबसे बडा संघर्ष था कि 27 साल पहले जब उसकी उम्र 33 की थी और 29 साल की उम्र में ही जब उसकी मेहनत से उसे सरकारी नौकरी मिल गयी तो महज चार साल बाद ही वह घर-मां सबकुछ छोड़कर क्यो जंगल की दिशा में भाग गया।
कामरेड को समझाना था कि वह पलायनवादी नहीं है। वह जिम्मेदारी छोड़कर भागा नहीं था, बल्कि बड़ी जिम्मेदारी का एहसास उसके भीतर समा गया था । जिसे शायद मां ने बेटे के दिल में बचपन से संजोया होगा। घर का परिवेश और शिक्षा-दिक्षा के असर ने भी उस लौ का काम किया होगा, जिसे उसने 27 साल से सपने की तरह संजोया है। मां के सवालों का जबाब कामरेड ने उस हिम्मत से भी जोड़ा, जिसे मां ने दिया । कामरेड कभी रिटायर नहीं होता । लेकिन 27 साल पहले की सरकारी नौकरी करते-करते तो मै भी रिटायर हो जाता और उम्र का गणित सरकारी तौर पर भी मुझे रिटायर कर देता । शायद कामरेड के इसी तर्क ने मां के भीतर भी संघर्ष की लौ जलायी होगी। इसीलिये कामरेड बेटे को घर की चारदीवारी में न बांधने की सोच ने ही डाक्टरी इलाज को पूरी तरह बंद करा दिया।
आखिरी चार महिनों में वहीं मां कामरेड बेटे को सपनो को पूरा करने के लिये उकसती रही, जिसे 27 साल पहले मां ने ढकोसला माना था । बेटे के घर छोडने के निर्णय को जिम्मेदारी से भागना करार दिया था । कोई दूसरा बेटा कामरेड के चक्कर में न आ जाये, इसके लिये मां ने बडे बेटे को सबसे बडा नालायक करार दिया था। लेकिन कामरेड के सपने अब अधूरे ना रह जायें. इसके लिये मां खुद मरने की राह पर चल पड़ी । बिना इलाज अप्रैल 2008 में मां की मौत हो गयी । कामरेड अब क्या करेगा, यह सवाल पूछना जायज नहीं था लेकिन उस दिन मां के अंतिम संसकार के बाद कामरेड के शहरी साथियो ने पूछा था । और मां के मरने के ठीक एक साल बाद संयोग से कामरेड से फिर मुलाकात हुई तो मां की आखिरी यादो पर चर्चा के बीच ही कामरेड ने मां को भी राजनीतिक दांव पर लगाने का जिक्र कर दिया । मेरी मां को छोडो, तुम तो पत्रकार हो वरुण की मां का उत्तर प्रदेश में क्या असर है । और राहुल की मां का देश पर क्या असर है । मैने कहा वरुण की मां मेनका जरुर राजनीतिक दांव पर है लेकिन राहुल अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है कि वह मां के आसुओं का सवाल उठा सके । राजनीतिक तौर पर अभी राहुल मां का बेटा ही है । लेकिन कामरेड आपकी चर्चा में अक्सर उस बंदूक का जिक्र नही होता, जिसपर सरकार और समाज दोनो सवालिया निशान लगाते हैं । क्या आपकी मां ने कभी यह सवाल नहीं उठाया या आपने कभी इसका जिक्र नहीं किया। खुलकर बताया। लेकिन उस तरह नहीं जैसे सरकार बताती है। देश के सामने माओवाद प्रभावित इलाको को भारत के नकशे पर रख कर देख लें । हमारे हथियारबंद कामरेडों की संख्या को देश के सुरक्षाकर्मियों की संख्या के सामने लिख कर देख लें । सभी बेहद छोटे हैं । रंग भी और संख्या भी । लेकिन सवाल देश के भीतर के कई देशों का है । हर राजनीतिक दल आज चुनाव में अपनी जीत का रंग अपने प्रदेश में रंगता है । अगर उन आंखो से देश का नक्शा देखेंगे तो माओवाद का रंग कांग्रेस,बीजेपी,वामपंथी या किसी भी राजनीतिक दल के रंग से ज्यादा बडा हमारे आंदोलन का इलाका नजर आयेगा । ठीक इसी तरह एक देश का सवाल सुरक्षाकर्मियो को लेकर भी कहां है । ज्यादा सुरक्षाकर्मी तो नेता और रईसों को ही सुरक्षा देने में लगे रहते है । फिर हर राज्य की अलग अलग सरकार अपनी सहूलियत के लिये सुरक्षाकर्मियो का प्रयोग करती हैं । अगर आपको सुरक्षाकर्मियों का कामकाज देखना है, तो तेलगांना से लेकर बंगाल-बिहार तक के हमारे दंडकाराण्य या सरकारी रेड कारीडोर में देख सकते हैं। यहा प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिये बहुराष्ट्रीय कंपनियो की परियोजनाओ की सुरक्षा में ही समूची फौज सरकार लगाये हुये है। झारखंड,छत्तीसगढ,उडीसा में तो अर्से से यह सब चल रहा है । नया नजारा बंगाल की वामपंथी सरकार ने भी अपना लिया है । नंदीग्राम के बाद लालगढ के इलाके में जा कर देखे, वहा सुरक्षाकर्मियो की तादाद आपको कश्मीर की याद दिला देगी। इन जगहो पर दो जून की रोटी मिलती नही है, लेकिन पचास हजार का बारुद से भरा लांचर सुरक्षाकर्मियो के पास पड़ा रहता है । आप झारखंड में जाइये । वहां के हालात को देखिये ।
इन हालातों पर मैंने मां को मरने से पहले सबकुछ बताया। आप कह सकते है कि इन हालात पर देश का कोई भी शख्स भरोसा कर ले तो उसे अपने होने पर शर्म आने लगेगी। हो सकता है मेरी मां को भी शर्म आने लगी है क्योकि झारखंड में अब भी 25 पैसे की मजदूरी भी होती है । और 25 पैसे में पेट भी भरता है । आप वहा 25 पैसे के अर्थशास्त्र में साफ पानी,स्कूल,डाक्टर की कल्पना भी कर सकते है । मां के इलाज में डॉक्टर को हर हफ्ते दवाई समेत पांच सौ रुपये देने पडते थे । उसके दूसरो बेटो के पास पैसा था, वक्त नहीं था इसलिये मां का इलाज तो करा ही सकते थे। लेकिन सवाल है, जिस दिन मां ने मेरे संघर्ष और सपने को मान्यता दे कर डाक्टरी इलाज बंद करने के निर्णय लिया उस दिन मुझे उनका चेहरा चमकता हुआ लगा । वह संतुष्ट थी कि मेरे सपनो का कोई सौदागर नहीं है बल्कि संघर्ष ही सपना है ।
{जी न्यूज के प्राइम टाइम एंकर और संपादक एवं वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग prasunbajpai.itzmyblog.com से साभार}
25 April 2009
राजीव, रिचा, सौम्या, आनंद कहां हो तुमलोग?
हर किसी को अपना बचपन, अपना स्कूल और स्कूल के दोस्त प्यारे होते हैं। मुझे भी हैं। स्कूल से जुड़ी कई बातें होती हैं जिसे हम ताउम्र याद रखना चाहते हैं। वो स्कूल में एक-दूसरे की कॉपी देख जल्दी से होमवर्क बना लेना। क्लास टीचर जब नाखुन चेक करे तो अपना नंबर आने से पहले जल्दी से बढ़े हुए नाखूनों को चबाकर खा जाना। और ऐसी ही कई यादें और। मगर, कैरियरनुमा मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते इस सफर में स्कूल के कई दोस्त रास्ते में ही रह जाते हैं। मेरे भी रह गए। वो आज किस शहर में हैं। क्या कर रहे हैं, मुझे कुछ नहीं पता। कहते हैं इंटरनेट लोगों को मिला देता है। मैं भी आज एक ऐसी ही कोशिश कर रहा हूं। बचपन में स्कूल के जमाने से अब पत्रकारिता में आने तक काफी वक्त बीत चुका है। आज इस उम्मीद से लिखने बैठा हूं कि शायद कोई मेरे ब्लॉग से टकरा जाए और मुझे पहचान लें। तब से शक्ल भी काफी बदल चुकी है इसलिए परिचय से शुरू करता हूं।
बिहार में एक छोटा सा कस्बा है, गोपालगंज। वहीं जन्मा। वहां के इकलौते स्टेडियम जिसे हम ‘मिंज स्टेडियम’ कहते हैं उसी से सटे किंडर गार्टेन नाम के स्कूल में शुरुआती पढ़ाई हुई। आंठवीं तक यहीं पढ़ा। जो दोस्त छूट गए उनमें पहला नाम राजीव गोस्वामी का है। शक्ल की बात करें तो बस उसके कटे होठ याद हैं। शायद तब हम पांचवी में थे, जब उसके पापा का तबादला बगल के सिवान जिले में हो गया। उसके बाद उससे बस एक बार मुलाकात हुई। एक बार उसने मुझे पत्र भी लिखा था। एकाध बार फोन पर बात भी हुई थी,...शायद। फिर वो कहां गया, कोई खबर नहीं। मेरी, उसकी और बिकास की दोस्ती अच्छी खासी थी। उससे मिलने का मन अब भी करता है।
दूसरा नाम आनंद नाम के दोस्त का है। वहीं स्कूल के पीछे मकान में रहता था। सांवला सा। कभी-कभार शाम को हम उसके घर जाया करते थे। उसके बारे में बहुत कुछ याद नहीं है। शायद वो भी ब्लॉग देखता हो औऱ मुझे मिल जाए। एक लड़की थी रीचा प्रियम। अमूमन छोटे शहरों में साथ पढ़ते हुए भी लड़के-लड़कियों के बीच दोस्ती जैसी कोई बात नहीं होती है। वैसा ही मेरे साथ भी था। आंठवी तक वो हमारे साथ ही पढ़ी। यादोपुर रोड पर नागा राम का मकान था, वहीं रहती थी वो। उसके साथ का एक वाकया दे रहा हूं, शायद वो पहचान जाए। हमारे स्कूल में सुबह स्टूडेंट विल होती थी। सबको प्रेयर के बाद बारी-बारी से उस विल को करना होता था औऱ सभी बच्चे उसे दोहराते थे। यह क्लास के रौल नंबर के हिसाब से होता था। मुझे याद है जब मेरी बारी आती तो मैं दो-तीन दिन स्कूल देरी से पहुंचता था। तब तक अगले लड़कों की बारी आ जाती और मैं साफ बच जाता था। एक बार यही चालाकी मेरे पहले वाले लड़के ने कर दी थी। तब दुर्घटनावश मैं फंस गया। सच कहूं तो मुझे वो 'विल' बिल्कुल याद नहीं थी। स्कूल के कैंपस में पहले मेरे क्लास का नाम और तब मेरा रौल नंबर पुकारा गया। अपनी तो सिट्टी-पिट्टी गुम थी। मैं डरते-सहमते पहुंचा। सिर्फ पहली लाइन बोल पाया था मैं। 'भारत हमारा देश है'। हां.... यही थी पहली लाइन। फिर मैं चुप। देर होने लगी। सभी अगली लाइन का इंतजार कर रहे थे। पर न अपने को दूसरी लाइन याद थी न मैंने बोला। तब रीचा रोज अपनी सहेलियों के साथ प्रेयर करवाती थी। देर होता देख उसने मेरी तरफ गुर्रा कर और मैने उसकी तरफ याचना के भाव से देखा। वो भांप गई कि पट्ठे को याद नहीं है। मगर क्लास की इज्जत जाती देख कर वह धीरे से दूसरी लाइन फुसफुसाई 'हम सब भारतवासी भाई-बहन है।' चूंकि इस लाइन से मुझे खासी चिढ़ थी औऱ जब दूसरे लोग स्टूडेंट विल पढ़ते तो मैं इसे अक्सर गोल कर जाया करता था। लेकिन उस दिन मैं ढंग से फंसा था, मुझे बोलना पड़ा। फिर तो वो अगली लाइन कहती, उसको सुनकर मैं बोलता फिर नियमानुसार बाकी के बच्चे। ऐसे किसी तरह उसकी वजह से बच पाया।
एक प्रकरण और है। आंठवी में एक बार जब क्लास में कोई नहीं था, मैने उसके स्कूल बैग में बालू डाल दिया। बाद में बहुत बवेला़ मचा था। दूबे सर ने सभी लड़कों को विद्या की कसम खिलाई थी। मैंने खाया भी और हजम भी कर गया। हालांकि बाद में मुझे उसका अपराध बोध जरूर हुआ था। हालांकि कुछ और दोस्त याद आते हैं जो स्कूल में तो नहीं थे, मगर उनसे टकराया था। मिश्रा कालोनी में रहने के दौरान बबली जिसका दूसरा नाम सौम्या प्रियदर्शी भी था। उसकी याद भी ताजा है। सुना था वो शायद दिल्ली में ही है।
ये सभी मेरी यादों में अब भी कहीं न कहीं मौजूद हैं। जब भी मैं पिछले दिनों की बातें याद करता हूं ये आकर सामने खड़े हो जाते हैं। शायद कोई इसी बहाने मिल जाए। या उसे जानने वाला कोई बंदा मेरी मदद कर सके। अपनी आईडी औऱ नंबर दे रहा हूं।
अशोक.....दिल्ली से. ईमेल.. tyagpath@gmail.com, .. मोबाइल नंबर..09711666056
बिहार में एक छोटा सा कस्बा है, गोपालगंज। वहीं जन्मा। वहां के इकलौते स्टेडियम जिसे हम ‘मिंज स्टेडियम’ कहते हैं उसी से सटे किंडर गार्टेन नाम के स्कूल में शुरुआती पढ़ाई हुई। आंठवीं तक यहीं पढ़ा। जो दोस्त छूट गए उनमें पहला नाम राजीव गोस्वामी का है। शक्ल की बात करें तो बस उसके कटे होठ याद हैं। शायद तब हम पांचवी में थे, जब उसके पापा का तबादला बगल के सिवान जिले में हो गया। उसके बाद उससे बस एक बार मुलाकात हुई। एक बार उसने मुझे पत्र भी लिखा था। एकाध बार फोन पर बात भी हुई थी,...शायद। फिर वो कहां गया, कोई खबर नहीं। मेरी, उसकी और बिकास की दोस्ती अच्छी खासी थी। उससे मिलने का मन अब भी करता है।
दूसरा नाम आनंद नाम के दोस्त का है। वहीं स्कूल के पीछे मकान में रहता था। सांवला सा। कभी-कभार शाम को हम उसके घर जाया करते थे। उसके बारे में बहुत कुछ याद नहीं है। शायद वो भी ब्लॉग देखता हो औऱ मुझे मिल जाए। एक लड़की थी रीचा प्रियम। अमूमन छोटे शहरों में साथ पढ़ते हुए भी लड़के-लड़कियों के बीच दोस्ती जैसी कोई बात नहीं होती है। वैसा ही मेरे साथ भी था। आंठवी तक वो हमारे साथ ही पढ़ी। यादोपुर रोड पर नागा राम का मकान था, वहीं रहती थी वो। उसके साथ का एक वाकया दे रहा हूं, शायद वो पहचान जाए। हमारे स्कूल में सुबह स्टूडेंट विल होती थी। सबको प्रेयर के बाद बारी-बारी से उस विल को करना होता था औऱ सभी बच्चे उसे दोहराते थे। यह क्लास के रौल नंबर के हिसाब से होता था। मुझे याद है जब मेरी बारी आती तो मैं दो-तीन दिन स्कूल देरी से पहुंचता था। तब तक अगले लड़कों की बारी आ जाती और मैं साफ बच जाता था। एक बार यही चालाकी मेरे पहले वाले लड़के ने कर दी थी। तब दुर्घटनावश मैं फंस गया। सच कहूं तो मुझे वो 'विल' बिल्कुल याद नहीं थी। स्कूल के कैंपस में पहले मेरे क्लास का नाम और तब मेरा रौल नंबर पुकारा गया। अपनी तो सिट्टी-पिट्टी गुम थी। मैं डरते-सहमते पहुंचा। सिर्फ पहली लाइन बोल पाया था मैं। 'भारत हमारा देश है'। हां.... यही थी पहली लाइन। फिर मैं चुप। देर होने लगी। सभी अगली लाइन का इंतजार कर रहे थे। पर न अपने को दूसरी लाइन याद थी न मैंने बोला। तब रीचा रोज अपनी सहेलियों के साथ प्रेयर करवाती थी। देर होता देख उसने मेरी तरफ गुर्रा कर और मैने उसकी तरफ याचना के भाव से देखा। वो भांप गई कि पट्ठे को याद नहीं है। मगर क्लास की इज्जत जाती देख कर वह धीरे से दूसरी लाइन फुसफुसाई 'हम सब भारतवासी भाई-बहन है।' चूंकि इस लाइन से मुझे खासी चिढ़ थी औऱ जब दूसरे लोग स्टूडेंट विल पढ़ते तो मैं इसे अक्सर गोल कर जाया करता था। लेकिन उस दिन मैं ढंग से फंसा था, मुझे बोलना पड़ा। फिर तो वो अगली लाइन कहती, उसको सुनकर मैं बोलता फिर नियमानुसार बाकी के बच्चे। ऐसे किसी तरह उसकी वजह से बच पाया।
एक प्रकरण और है। आंठवी में एक बार जब क्लास में कोई नहीं था, मैने उसके स्कूल बैग में बालू डाल दिया। बाद में बहुत बवेला़ मचा था। दूबे सर ने सभी लड़कों को विद्या की कसम खिलाई थी। मैंने खाया भी और हजम भी कर गया। हालांकि बाद में मुझे उसका अपराध बोध जरूर हुआ था। हालांकि कुछ और दोस्त याद आते हैं जो स्कूल में तो नहीं थे, मगर उनसे टकराया था। मिश्रा कालोनी में रहने के दौरान बबली जिसका दूसरा नाम सौम्या प्रियदर्शी भी था। उसकी याद भी ताजा है। सुना था वो शायद दिल्ली में ही है।
ये सभी मेरी यादों में अब भी कहीं न कहीं मौजूद हैं। जब भी मैं पिछले दिनों की बातें याद करता हूं ये आकर सामने खड़े हो जाते हैं। शायद कोई इसी बहाने मिल जाए। या उसे जानने वाला कोई बंदा मेरी मदद कर सके। अपनी आईडी औऱ नंबर दे रहा हूं।
अशोक.....दिल्ली से. ईमेल.. tyagpath@gmail.com, .. मोबाइल नंबर..09711666056
09 April 2009
जर्नलिस्ट जनरैल सिंह से मेरी बातचीत
भगत सिंह ने जब एसेंबली में बम फोड़ने की बात कही थी तो उनके साथी चौंके थे। भगत सिंह का जवाब था कि सत्ता में बैठे लोग बहरे होते हैं। उन्हें सिर्फ धमाके सुनाई पड़ते हैं। जनरैल सिंह ने जब चिदंबरम पर जूता फेंका तो मुझे भगत सिंह की वह बात अचानक याद आ गई। सालों से न्याय के लिए लड़ते, गिड़गिड़ाते सिख समुदाय को 25 वर्ष बाद तक न्याय नहीं मिल पाया था। क्योंकि सत्ता में बैठे लोग वाकई बहरे थे। और वह जनरैल के जूते के धमाके से ही जगे। क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर क्या वजह होती है, जब अपनी कलम के बूते आम जनता को आंदोलित कर देने वाला पत्रकार खुद आंदोलन को मजबूर हो जाता है।
16 फरवरी 1973 में दिल्ली में जन्में जनरैल सिंह ने शुरुआती पढ़ाई लोकल सरकारी स्कूल से की। स्नातक और आगे की शिक्षा साउथ कैंपस के डीएवी कॉलेज में हुई है। पिछले एक दशक से वह दैनिक जागरण के साथ हैं। अच्छे समाज के निर्माण में अपनी भूमिका तलाशते हुए जनरैल पत्रकारिता में आएं। वह चाहते हैं कि सबके साथ न्याय हो। कहते हैं “किसी के साथ भी अन्याय हो तो मुझे पीड़ा होती है।” मैं एक मीडिया न्यूज पोर्टल (भड़ास4मीडिया)के साथ जुड़ा हूं। मैने जनरैल की पीड़ा, जूता फेंकने की उनकी मजबूरी और इस घटना के बाद देश में हो रही राजनीति के बारे में उनसे बातचीत की। नीचे जनरैल से बातचीत का ब्यौरा हैः-
सवालः आप इस तरह का कदम उठाने के लिए क्यों मजबूर हुए?
जवाबः सिख दंगों के आरोपी कांग्रेसी नेताओं को सीबीआई से क्लीनचिट मिलने पर चिदंबरम ने कहा था कि मैं खुश हूं, क्योंकि मेरी पार्टी के लोगों को क्लीनचिट मिल गई। मेरा कहना था कि आप सिर्फ किसी पार्टी के नेता नहीं हैं, बल्कि पूरे देश के गृहमंत्री हैं। आप खुश कैसे हो सकते हैं, जब एक समुदाय को लंबे समय से न्याय नहीं मिला और वह दुखी है।
सवालः क्या एक पत्रकार को ऐसा करना चाहिए था?
जवाबः नहीं। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। एक पत्रकार होने के नाते मेरा कदम गलत था। लेकिन एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक होने के नाते मैं समझता हूं कि लोगों को न्याय मिलना चाहिए। मेरा इश्यू ठीक था।
सवालः क्या आपने यह नहीं सोचा कि आप पर बड़ी कारवाई हो सकती है? डरे नहीं आप?
जवाबः मेरा इरादा बुरा नहीं था। मैं उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता था। मैने उनके साइड में जूता फेंका। मेरा विरोध सांकेतिक था।
सवालः आपको नहीं लगता कि अगर आम चुनाव नहीं होते तो आपको इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जाता?
जवाबः इस बारे में मैं कैसे कुछ कह सकता हूं। लेकिन उन्होंने मुझे छोड़ दिया यह समझदारी भरा फैसला था। उन्होंने समझा कि मैने भावावेश में ऐसा किया। मैं चिदंबरम की तारीफ करता हूं।
सवालः घटना के बाद आपके साथियों की क्या प्रतिक्रिया थी?
जवाबः सभी शॉक्ड् थे। किसी ने एक्सेप्ट नहीं किया था कि मैं ऐसा कर सकता हूं। मैंने हमेशा मर्यादित जर्नलिज्म की बात की है।
सवालः क्या दैनिक जागरण के आफिस से फोन आया था? संजय गुप्ता या फिर संपादक का?
जवाबः नहीं, मुझसे अभी तक किसी ने कोई बात नहीं की है। मुझे कोई मैसेज नहीं मिला है।
सवालः आप आफिस जा रहे हैं?
जवाबः नहीं।
सवालः आपने पत्रकारिता को क्यों चुना?
जवाबः अच्छे समाज के निर्माण के लिए मैने यह क्षेत्र चुना था। हमारे समुदाय से काफी कम लोग इस फिल्ड में आते हैं, यह भी एक वजह थी। मैं समझता हूं कि हमें न्याय के लिए लड़ना चाहिए। मुझमें हमेशा निष्पक्ष पत्रकारिता का जज्बा रहा है।
सवालः घरवालों की क्या प्रतिक्रया थी?
जवाबः सभी सदमें में हैं। जब से घटना हुई है मैं घर नहीं गया। घर पर कई पॉलिटिकल लीडर आ रहे हैं। मैं उनसे बचना चाह रहा हूं।
सवालः अकाली दल ने आपको टिकट देने की बात कही है, क्या आप राजनीति में आएंगे?
जवाबः मुझे टिकट नहीं चाहिए। न ही मुझे राजनीति में आना है। मैं नहीं चाहता कि इस मुद्दे को लेकर कोई राजनीति हो या कोई पार्टी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंके। देश में जाति, मजहब, या क्षेत्र की राजनीति बंद होनी चाहिए। एक टीवी चैनल ने इस मुद्दे पर बहस कराई थी। उसमें 82 फीसदी लोगों ने कहा कि जनरैल का (मेरा) मुद्दा सही है। वह सभी धर्मों के लोग थे। मैं चाहता हूं कि आमलोग जागरूक हो।
सवालः क्या 84 के दंगों में आपके परिवार का कोई सदस्य भी शिकार हुआ था?
जवाबः हां। लेकिन वह कोई इश्यू नहीं था। मैं भारतीय नागरिक की तरह बात करता हूं। सबके साथ न्याय होना चाहिए। किसी के साथ अन्याय हो तो मुझे पीड़ा होती है।
16 फरवरी 1973 में दिल्ली में जन्में जनरैल सिंह ने शुरुआती पढ़ाई लोकल सरकारी स्कूल से की। स्नातक और आगे की शिक्षा साउथ कैंपस के डीएवी कॉलेज में हुई है। पिछले एक दशक से वह दैनिक जागरण के साथ हैं। अच्छे समाज के निर्माण में अपनी भूमिका तलाशते हुए जनरैल पत्रकारिता में आएं। वह चाहते हैं कि सबके साथ न्याय हो। कहते हैं “किसी के साथ भी अन्याय हो तो मुझे पीड़ा होती है।” मैं एक मीडिया न्यूज पोर्टल (भड़ास4मीडिया)के साथ जुड़ा हूं। मैने जनरैल की पीड़ा, जूता फेंकने की उनकी मजबूरी और इस घटना के बाद देश में हो रही राजनीति के बारे में उनसे बातचीत की। नीचे जनरैल से बातचीत का ब्यौरा हैः-
सवालः आप इस तरह का कदम उठाने के लिए क्यों मजबूर हुए?
जवाबः सिख दंगों के आरोपी कांग्रेसी नेताओं को सीबीआई से क्लीनचिट मिलने पर चिदंबरम ने कहा था कि मैं खुश हूं, क्योंकि मेरी पार्टी के लोगों को क्लीनचिट मिल गई। मेरा कहना था कि आप सिर्फ किसी पार्टी के नेता नहीं हैं, बल्कि पूरे देश के गृहमंत्री हैं। आप खुश कैसे हो सकते हैं, जब एक समुदाय को लंबे समय से न्याय नहीं मिला और वह दुखी है।
सवालः क्या एक पत्रकार को ऐसा करना चाहिए था?
जवाबः नहीं। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। एक पत्रकार होने के नाते मेरा कदम गलत था। लेकिन एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक होने के नाते मैं समझता हूं कि लोगों को न्याय मिलना चाहिए। मेरा इश्यू ठीक था।
सवालः क्या आपने यह नहीं सोचा कि आप पर बड़ी कारवाई हो सकती है? डरे नहीं आप?
जवाबः मेरा इरादा बुरा नहीं था। मैं उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता था। मैने उनके साइड में जूता फेंका। मेरा विरोध सांकेतिक था।
सवालः आपको नहीं लगता कि अगर आम चुनाव नहीं होते तो आपको इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जाता?
जवाबः इस बारे में मैं कैसे कुछ कह सकता हूं। लेकिन उन्होंने मुझे छोड़ दिया यह समझदारी भरा फैसला था। उन्होंने समझा कि मैने भावावेश में ऐसा किया। मैं चिदंबरम की तारीफ करता हूं।
सवालः घटना के बाद आपके साथियों की क्या प्रतिक्रिया थी?
जवाबः सभी शॉक्ड् थे। किसी ने एक्सेप्ट नहीं किया था कि मैं ऐसा कर सकता हूं। मैंने हमेशा मर्यादित जर्नलिज्म की बात की है।
सवालः क्या दैनिक जागरण के आफिस से फोन आया था? संजय गुप्ता या फिर संपादक का?
जवाबः नहीं, मुझसे अभी तक किसी ने कोई बात नहीं की है। मुझे कोई मैसेज नहीं मिला है।
सवालः आप आफिस जा रहे हैं?
जवाबः नहीं।
सवालः आपने पत्रकारिता को क्यों चुना?
जवाबः अच्छे समाज के निर्माण के लिए मैने यह क्षेत्र चुना था। हमारे समुदाय से काफी कम लोग इस फिल्ड में आते हैं, यह भी एक वजह थी। मैं समझता हूं कि हमें न्याय के लिए लड़ना चाहिए। मुझमें हमेशा निष्पक्ष पत्रकारिता का जज्बा रहा है।
सवालः घरवालों की क्या प्रतिक्रया थी?
जवाबः सभी सदमें में हैं। जब से घटना हुई है मैं घर नहीं गया। घर पर कई पॉलिटिकल लीडर आ रहे हैं। मैं उनसे बचना चाह रहा हूं।
सवालः अकाली दल ने आपको टिकट देने की बात कही है, क्या आप राजनीति में आएंगे?
जवाबः मुझे टिकट नहीं चाहिए। न ही मुझे राजनीति में आना है। मैं नहीं चाहता कि इस मुद्दे को लेकर कोई राजनीति हो या कोई पार्टी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंके। देश में जाति, मजहब, या क्षेत्र की राजनीति बंद होनी चाहिए। एक टीवी चैनल ने इस मुद्दे पर बहस कराई थी। उसमें 82 फीसदी लोगों ने कहा कि जनरैल का (मेरा) मुद्दा सही है। वह सभी धर्मों के लोग थे। मैं चाहता हूं कि आमलोग जागरूक हो।
सवालः क्या 84 के दंगों में आपके परिवार का कोई सदस्य भी शिकार हुआ था?
जवाबः हां। लेकिन वह कोई इश्यू नहीं था। मैं भारतीय नागरिक की तरह बात करता हूं। सबके साथ न्याय होना चाहिए। किसी के साथ अन्याय हो तो मुझे पीड़ा होती है।
04 April 2009
युवाओं की जंग लड़ते प्रेम और रंजन
इन दोनों युवाओं के नाम प्रेमपाल सिंह और रंजन राणा हैं। इसमें से प्रेम इस साल लोकसभा चुनाव लड़ रहे है। और रंजन हैं उनके रणनीतिकार, सलाहकार। बाकी अमित चौधरी, तेजवीर सिंह और प्रवेश यादव ये तीनों हर पल उनके साथ जुटे पड़े हैं। इन सबको मैं असली हीरो मानता हूं, क्योंकि इन्होंने कहा नहीं, कर के दिखाया। देश में युवा शक्ति के शोर के बीच ये उस डगर पर निकल पड़े हैं जिसके बारे में सोचते तो बहुत हैं मगर चल नहीं पाते। प्रेमपाल सिंह अलीगढ़ से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव में उतर चुके हैं। इन्हें पता है कि जीतना शायद सपना भर है। मगर इन्होंने हिम्मत की है। अपने साथियों के साथ ये गांव की पगडिंडियां और उबल-खाबड़ रास्तों पर निकल चुके हैं।
इन सभी को मैं सिर्फ पिछले छह महीने से जानता हूं। तब मैं अलीगढ़, अमर-उजाला में बतौर अमुवि रिपोर्टर काम कर रहा था। महाराष्ट्रा में उत्तर भारतीयों पर हमले के खिलाफ मैं अंदर से ही उबल रहा था। वहां की घटना ने मेरे अंदर रोष भर दिया था। क्षेत्रवाद की घृणित राजनीति और युवाओं के संवैधानिक अधिकारों के हनन को देखकर मैं बैचेन था, परेशान था। एक दिन मैनें तय कर लिया कि मुझे इसकी मुखालफत करनी है। तब मैं अलीगढ़ के अखबारों में अक्सर कुछ खबरें पढ़ा करता था। छात्रों के साथ कालेज प्रशासन ने कोई गलती की तो हंगामा, परीक्षा का हॉल मार्क नहीं मिला तो धरना, पुलिस ने किसी की रिपोर्ट नहीं लिखी तो थाने पर अनशन, भूख हड़ताल। और इसी तरह की कई खबरें। इन सभी खबरों में इन दोनों के नाम अक्सर होते थे। मैने अपने एजूकेशन बीट के रिपोर्टर अभिषेक सिंह से रंजन का नंबर लेकर उसे फोन किया। एक घंटे के भीतर हम साथ थे। वो पहली मुलाकात थी हमारी। मैने सीधे उससे अपनी योजना बताई। कहा कि मुझे तुमलोगों का साथ चाहिए। उसने कहा भैया आप तो नौकरी करते हैं, उसका क्या होगा? मैने कहा छुट्टी लेकर करूंगा, नहीं मिली तो नौकरी छोड़ दूंगा।
दूसरे दिन फिर हम साथ बैठे। तब प्रेम से मेरी पहली मुलाकात हुई। रंजन जितना सुलझा हुआ था, प्रेम उतना ही अक्खड़ और सीधी बात करने वाला था। खड़ी बात बोलता, अच्छा लगे तो ठीक बुरा लगे तो ठेंगे से। मैनें उन्हें अपनी योजना बताई कि हमें लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, गोरखपुर, पटना, मेरठ और दिल्ली के विश्वविद्यालयों में जाकर युवाओं के बीच हस्ताक्षर अभियान चलाना है और इस विरोधपत्र को राष्ट्रपित को सौंपना है। पूरे इक्कीस दिनों का सफर था। हमने 1 अक्तूबर को शुरू किया और 21 अक्तूबर को दिल्ली पहुंचना था।
प्रेम, रंजन, अमित और प्रवेश हर मौके पर जिस जीवटता से मेरे साथ खड़े रहे वो आश्चर्यजनक था। आप सिर्फ अंदाजा भर लगा सकते हैं कि ऐसे युवा जिनसे आप कभी मिले न हो आपके साथ ऐसे सफर पर चल परे जहां न खाने का वक्त हो न सोने की जगह। इस तरह मेरी लड़ाई 'हमारी' लड़ाई हो गई थी औऱ हम निकल पड़े थे अपनी आवाज को लोगों तक पहुंचाने, अपने विरोध को जीने। 21 अक्तूबर को लगभग पांच सौ और लड़कों को लेकर हम दिल्ली पहुंचे। तभी प्रेम कहा करता था कि भैया मैं चुनाव लड़ूंगा और आज वह तैयार है। हम सबको पता है कि इन्हें न तो शहर के पूंजीपतियों से कोई चंदा मिलेगा न खुद किसी एक की जेब में इतने पैसे हैं कि वो किसी का मुकाबला कर सके। इसीलिए वो मेरा हीरो है क्योंकि उसने सिर्फ कहा नहीं बल्कि कर के दिखाया। तमाम संसाधनों के अभाव में सिर्फ अपने और अपने दोस्तों के जुनून के बूते।
आज सुबह ही रंजन का फोन आया था, बता रहा था, भैया 11 मई को नामिनेशन है। आपको आना है। वह चुनाव क्षेत्र में ही था। ये वो लड़के हैं, जो न गांधी के वंशजों के साये में हैं, न संघ की छाया में। इनके सर पर न तो मार्क्स का हाथ है न समाजवाद का। न धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हैं न जाति के आधार पर उन्हें तोड़ते हैं। ये अगर जानते हैं तो सिर्फ "इंकलाब"। मुझे लगता है कि वे युवाओं की जंग लड़ रहे हैं। हो सकता है कि आपको लगे कि मैं इनके बारे में कुछ ज्यादा ही लिख रहा हूं। क्योंकि ये मेरे सफर में साथ थे। मगर एकबारगी यह सोचिए कि अगर हममे से किसी को ऐसे आदमी ने 21 दिनों के लिए चलने के लिए कहा होता जिसे हम जानते नहीं तो क्या हम जाते? शायद नहीं। हमें इनका उत्साह बढ़ाना चाहिए। एक युवा होने के नाते एक निश्छल, निष्कपट प्रयास को तो सराहा ही जा सकता है। मैं उन दोनों के फोन नंबर नीचे दे रहा हूं। अगर कोई उन्हें फोन करेगा तो उन्हें हौसला मिलेगा। हम इतना तो कर ही सकते हैं। है ना?
प्रेमपाल सिंह == 09359055566
रंजन राणा == 09368170076
इन सभी को मैं सिर्फ पिछले छह महीने से जानता हूं। तब मैं अलीगढ़, अमर-उजाला में बतौर अमुवि रिपोर्टर काम कर रहा था। महाराष्ट्रा में उत्तर भारतीयों पर हमले के खिलाफ मैं अंदर से ही उबल रहा था। वहां की घटना ने मेरे अंदर रोष भर दिया था। क्षेत्रवाद की घृणित राजनीति और युवाओं के संवैधानिक अधिकारों के हनन को देखकर मैं बैचेन था, परेशान था। एक दिन मैनें तय कर लिया कि मुझे इसकी मुखालफत करनी है। तब मैं अलीगढ़ के अखबारों में अक्सर कुछ खबरें पढ़ा करता था। छात्रों के साथ कालेज प्रशासन ने कोई गलती की तो हंगामा, परीक्षा का हॉल मार्क नहीं मिला तो धरना, पुलिस ने किसी की रिपोर्ट नहीं लिखी तो थाने पर अनशन, भूख हड़ताल। और इसी तरह की कई खबरें। इन सभी खबरों में इन दोनों के नाम अक्सर होते थे। मैने अपने एजूकेशन बीट के रिपोर्टर अभिषेक सिंह से रंजन का नंबर लेकर उसे फोन किया। एक घंटे के भीतर हम साथ थे। वो पहली मुलाकात थी हमारी। मैने सीधे उससे अपनी योजना बताई। कहा कि मुझे तुमलोगों का साथ चाहिए। उसने कहा भैया आप तो नौकरी करते हैं, उसका क्या होगा? मैने कहा छुट्टी लेकर करूंगा, नहीं मिली तो नौकरी छोड़ दूंगा।
दूसरे दिन फिर हम साथ बैठे। तब प्रेम से मेरी पहली मुलाकात हुई। रंजन जितना सुलझा हुआ था, प्रेम उतना ही अक्खड़ और सीधी बात करने वाला था। खड़ी बात बोलता, अच्छा लगे तो ठीक बुरा लगे तो ठेंगे से। मैनें उन्हें अपनी योजना बताई कि हमें लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, गोरखपुर, पटना, मेरठ और दिल्ली के विश्वविद्यालयों में जाकर युवाओं के बीच हस्ताक्षर अभियान चलाना है और इस विरोधपत्र को राष्ट्रपित को सौंपना है। पूरे इक्कीस दिनों का सफर था। हमने 1 अक्तूबर को शुरू किया और 21 अक्तूबर को दिल्ली पहुंचना था।
प्रेम, रंजन, अमित और प्रवेश हर मौके पर जिस जीवटता से मेरे साथ खड़े रहे वो आश्चर्यजनक था। आप सिर्फ अंदाजा भर लगा सकते हैं कि ऐसे युवा जिनसे आप कभी मिले न हो आपके साथ ऐसे सफर पर चल परे जहां न खाने का वक्त हो न सोने की जगह। इस तरह मेरी लड़ाई 'हमारी' लड़ाई हो गई थी औऱ हम निकल पड़े थे अपनी आवाज को लोगों तक पहुंचाने, अपने विरोध को जीने। 21 अक्तूबर को लगभग पांच सौ और लड़कों को लेकर हम दिल्ली पहुंचे। तभी प्रेम कहा करता था कि भैया मैं चुनाव लड़ूंगा और आज वह तैयार है। हम सबको पता है कि इन्हें न तो शहर के पूंजीपतियों से कोई चंदा मिलेगा न खुद किसी एक की जेब में इतने पैसे हैं कि वो किसी का मुकाबला कर सके। इसीलिए वो मेरा हीरो है क्योंकि उसने सिर्फ कहा नहीं बल्कि कर के दिखाया। तमाम संसाधनों के अभाव में सिर्फ अपने और अपने दोस्तों के जुनून के बूते।
आज सुबह ही रंजन का फोन आया था, बता रहा था, भैया 11 मई को नामिनेशन है। आपको आना है। वह चुनाव क्षेत्र में ही था। ये वो लड़के हैं, जो न गांधी के वंशजों के साये में हैं, न संघ की छाया में। इनके सर पर न तो मार्क्स का हाथ है न समाजवाद का। न धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हैं न जाति के आधार पर उन्हें तोड़ते हैं। ये अगर जानते हैं तो सिर्फ "इंकलाब"। मुझे लगता है कि वे युवाओं की जंग लड़ रहे हैं। हो सकता है कि आपको लगे कि मैं इनके बारे में कुछ ज्यादा ही लिख रहा हूं। क्योंकि ये मेरे सफर में साथ थे। मगर एकबारगी यह सोचिए कि अगर हममे से किसी को ऐसे आदमी ने 21 दिनों के लिए चलने के लिए कहा होता जिसे हम जानते नहीं तो क्या हम जाते? शायद नहीं। हमें इनका उत्साह बढ़ाना चाहिए। एक युवा होने के नाते एक निश्छल, निष्कपट प्रयास को तो सराहा ही जा सकता है। मैं उन दोनों के फोन नंबर नीचे दे रहा हूं। अगर कोई उन्हें फोन करेगा तो उन्हें हौसला मिलेगा। हम इतना तो कर ही सकते हैं। है ना?
प्रेमपाल सिंह == 09359055566
रंजन राणा == 09368170076
25 March 2009
हल्ला बोल।
इन दिनों जब भाजपा नेता वरुण गांधी के मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने का मुद्दा गरमाया हुआ है, तो मुझे मेरे मुस्लिम दोस्तों की याद आ रही है।
मेरा एक मुसलमान दोस्त है। तारिक अहमद। बिल्कुल बचपन का। मुसलमानों में अगर वो किसी को जानता है तो सिर्फ अपने रिश्तेदारों को। बाकी हमारे ग्रुप के अलावा उसकी किसी दूसरे मुसलमान लड़के से कम ही दोस्ती है। मतलब हम हिंदुओं के बीच घिरा एक अकेला मुसलमान दोस्त। मुझे याद आता है कि हम उससे अक्सर मजाक किया करते थे। जब कोई साथी उसे 'कटुआ' कहता, तो कभी वो चुप रहकर सुन लेता तो कभी गाली देता। कभी हम उसे चिढ़ाते की क्या बे घर पर “बड़का” बना है, तब वो गंभीर होकर कहता, ‘हमलोग नहीं खाते हैं।’ ईद पर जब वो खाने का निमंत्रण देता तो उसे खुद से ही बार-बार सफाई देनी पड़ती थी कि हम हिंदु दोस्तों के लिए घर में अलग से मांस पकाया गया है। वो कभी भी खुलकर हमसे बातें नहीं किया करता था। उसकी बातों में हमेंशा एक झिझक साफ महसूस होती थी। वह आज भी मेरा दोस्त है। हम दोनों बड़े हो चुके हैं। मैं पत्रकार बन गया हूं और बतौर पत्रकार अब उसकी ‘झिझक’ का राज समझ में आने लगा है। मुसलमानों के साथ का यह मेरा पहला अनुभव था।
दूसरा अनुभव अलीगढ़ में हुआ। वहां अमर उजाला में रिपोर्टिंग करते हुए मुझे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जिम्मेदारी मिली थी। वहां चपरासी से लेकर कुलपति तक लगभग नब्बे फीसदी मुसलमान ही हैं। सभी जानते हैं कि मुस्लिम छात्रों की संख्या भी वहां सबसे अधिक है। चूंकि काम ऐसा था कि सभी से बात करनी होती थी। मेरे अमुवि कवर करने के दौरान ही दिल्ली में बाटला हाउस इंकाउंटर हुआ था। चौबीस घंटे के चैनलों पर चर्चा जोरों पर थी। पूरे देश के मुसलमानों में इस घटना को लेकर उबाल था। जाहिर है, मुस्लिम बुद्धिजीवियों का गढ़ ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ भी उबल रहा था। मगर भीतर-भीतर। उस दौरान कैंपस में एक अजीब सा सन्नाटा महसूस किया था मैने। एक दिन मैं परीक्षा कंट्रोलर प्रो. मो. इरफान के आफिस में बैठा हुआ था। वो बुजुर्ग हैं और महामशीन बनाने के प्रोजेक्ट में उन्हें जेनेवा से बुलावा भी आ चुका था। मुझे याद है कि इस घटना कि चर्चा करने पर वो एकदम से भड़क गए थे। मीडिया द्वारा की जा रही रिपोर्टिंग को लेकर वो काफी आहत थे। अपने दर्द को जाहिर करते हुए उन्होंने मुझसे पूछा था कि मीडिया आखिर हर मुसलमान को आतंकवादी करार देने पर क्यों तुला हुआ है? मैने पूछा था कि आखिर हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों पकडा जाता है? जवाब में उन्होंने फिर सवाल उछाला कि उनमें भारतीय मुसलमानों की संख्या कितनी होती है? मुझे उनका सवाल जायज लगा था और मैं चुप रह गया था।
मुद्दे की बात। अब, जब वरुण गांधी के मुस्लिम विरोधी बयान को लेकर काफी शोर मच चुका है और देश के बुद्धिजीवी जुबान की लड़ाई छेड़ चुके हैं। कुछ दोगले किस्म के नेता चुनावों में अपने नफा-नुकसान को देखते हुए इसे भुनाने में जुट चुके हैं। आम मुसलमानों की चुप्पी समझ में नहीं आ रही है। आखिर क्यों चुप हैं मुसलमान? किसी ने आपको गाली दे दी और आप चुप हो गए इस इंतजार में कि इस गाली का जवाब कोई नेता दे और आप संतुष्ट हो लें। मुसलमान यह कब समझेंगे कि चाहे कोई भी नेता हो, अगर वो उनकी खिलाफत करता है तो वोट के लिए, अगर सहलाता है तो भी वोट के लिए। ठीक वैसे ही जैसे वो दलितों के साथ करते हैं। इस देश पर आपका भी उतना ही हक है जितना हिंदुओं का है। क्योंकि बंटवारे के समय आपने इस देश को खुद चुना था। तब, जब आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाया जा रहा है तो क्यों नहीं आप सड़क पर निकल कर विरोध जता रहे हैं। क्यों इस ताक में हैं कि कोई आपको रेलगाड़ी उपलब्ध कराए और तब आप दिल्ली आकर अपना विरोध दर्ज कराएं। आप जहां हैं वहीं विरोध करें। ताकि फिर कोई नेता, चाहे वो किसी पार्टी का हो, दुबारा ऐसी हिमाकत न कर सके। बाहर निकल, हल्ला बोल..........
मेरा एक मुसलमान दोस्त है। तारिक अहमद। बिल्कुल बचपन का। मुसलमानों में अगर वो किसी को जानता है तो सिर्फ अपने रिश्तेदारों को। बाकी हमारे ग्रुप के अलावा उसकी किसी दूसरे मुसलमान लड़के से कम ही दोस्ती है। मतलब हम हिंदुओं के बीच घिरा एक अकेला मुसलमान दोस्त। मुझे याद आता है कि हम उससे अक्सर मजाक किया करते थे। जब कोई साथी उसे 'कटुआ' कहता, तो कभी वो चुप रहकर सुन लेता तो कभी गाली देता। कभी हम उसे चिढ़ाते की क्या बे घर पर “बड़का” बना है, तब वो गंभीर होकर कहता, ‘हमलोग नहीं खाते हैं।’ ईद पर जब वो खाने का निमंत्रण देता तो उसे खुद से ही बार-बार सफाई देनी पड़ती थी कि हम हिंदु दोस्तों के लिए घर में अलग से मांस पकाया गया है। वो कभी भी खुलकर हमसे बातें नहीं किया करता था। उसकी बातों में हमेंशा एक झिझक साफ महसूस होती थी। वह आज भी मेरा दोस्त है। हम दोनों बड़े हो चुके हैं। मैं पत्रकार बन गया हूं और बतौर पत्रकार अब उसकी ‘झिझक’ का राज समझ में आने लगा है। मुसलमानों के साथ का यह मेरा पहला अनुभव था।
दूसरा अनुभव अलीगढ़ में हुआ। वहां अमर उजाला में रिपोर्टिंग करते हुए मुझे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जिम्मेदारी मिली थी। वहां चपरासी से लेकर कुलपति तक लगभग नब्बे फीसदी मुसलमान ही हैं। सभी जानते हैं कि मुस्लिम छात्रों की संख्या भी वहां सबसे अधिक है। चूंकि काम ऐसा था कि सभी से बात करनी होती थी। मेरे अमुवि कवर करने के दौरान ही दिल्ली में बाटला हाउस इंकाउंटर हुआ था। चौबीस घंटे के चैनलों पर चर्चा जोरों पर थी। पूरे देश के मुसलमानों में इस घटना को लेकर उबाल था। जाहिर है, मुस्लिम बुद्धिजीवियों का गढ़ ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ भी उबल रहा था। मगर भीतर-भीतर। उस दौरान कैंपस में एक अजीब सा सन्नाटा महसूस किया था मैने। एक दिन मैं परीक्षा कंट्रोलर प्रो. मो. इरफान के आफिस में बैठा हुआ था। वो बुजुर्ग हैं और महामशीन बनाने के प्रोजेक्ट में उन्हें जेनेवा से बुलावा भी आ चुका था। मुझे याद है कि इस घटना कि चर्चा करने पर वो एकदम से भड़क गए थे। मीडिया द्वारा की जा रही रिपोर्टिंग को लेकर वो काफी आहत थे। अपने दर्द को जाहिर करते हुए उन्होंने मुझसे पूछा था कि मीडिया आखिर हर मुसलमान को आतंकवादी करार देने पर क्यों तुला हुआ है? मैने पूछा था कि आखिर हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों पकडा जाता है? जवाब में उन्होंने फिर सवाल उछाला कि उनमें भारतीय मुसलमानों की संख्या कितनी होती है? मुझे उनका सवाल जायज लगा था और मैं चुप रह गया था।
मुद्दे की बात। अब, जब वरुण गांधी के मुस्लिम विरोधी बयान को लेकर काफी शोर मच चुका है और देश के बुद्धिजीवी जुबान की लड़ाई छेड़ चुके हैं। कुछ दोगले किस्म के नेता चुनावों में अपने नफा-नुकसान को देखते हुए इसे भुनाने में जुट चुके हैं। आम मुसलमानों की चुप्पी समझ में नहीं आ रही है। आखिर क्यों चुप हैं मुसलमान? किसी ने आपको गाली दे दी और आप चुप हो गए इस इंतजार में कि इस गाली का जवाब कोई नेता दे और आप संतुष्ट हो लें। मुसलमान यह कब समझेंगे कि चाहे कोई भी नेता हो, अगर वो उनकी खिलाफत करता है तो वोट के लिए, अगर सहलाता है तो भी वोट के लिए। ठीक वैसे ही जैसे वो दलितों के साथ करते हैं। इस देश पर आपका भी उतना ही हक है जितना हिंदुओं का है। क्योंकि बंटवारे के समय आपने इस देश को खुद चुना था। तब, जब आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाया जा रहा है तो क्यों नहीं आप सड़क पर निकल कर विरोध जता रहे हैं। क्यों इस ताक में हैं कि कोई आपको रेलगाड़ी उपलब्ध कराए और तब आप दिल्ली आकर अपना विरोध दर्ज कराएं। आप जहां हैं वहीं विरोध करें। ताकि फिर कोई नेता, चाहे वो किसी पार्टी का हो, दुबारा ऐसी हिमाकत न कर सके। बाहर निकल, हल्ला बोल..........
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