28 October 2009

मदुरै का कर्मठ महात्मा- इस शख्स को मेरा सलाम

हमारे जीवन में अचानक कुछ घटनाएं ऐसी होती है, जो हमें झंकझोर कर रख देती है. हम थोड़ा सा ठिठकते हैं, थोड़ा सोचते हैं, फिर आगे बढ़ जाते हैं. मगर कोई-कोई शख्स ऐसा भी होता है, जो ठिठकता है, सोचता है, फिर रुक जाता है. कृष्णन ऐसे ही हैं....त्यागपथ पर चलने वाले कृष्णन को अशोक का सलाम....

मदुराई के एक युवक एन कृष्णन ने वह कर दिखाया जो कई लोग या तो सोच ही नहीं पाते, अथवा सिर्फ़ सोचकर रह जाते हैं। मदुरै का यह कर्मठ महात्मा, पिछले सात साल से रोज़ाना दिन में तीन बार शहर में घूम-घूमकर ऐसे रोगियों, विक्षिप्तों और बेसहारा लोगों को खाना खिलाता है। मात्र 30 वर्ष की उम्र में "अक्षयपात्र" नामक ट्रस्ट के जरिये वे यह सेवाकार्य चलाते हैं।
अक्षयपात्र ट्रस्ट की रसोई में झांककर जब हम देखते हैं, तो पाते हैं कि चमचमाते हुए करीने से रखे बर्तन, शुद्ध दाल, चावल, सब्जियाँ और मसाले… ऐसा लगता है कि हम किसी 5 सितारा होटल के किचन में हैं, और हो भी क्यों ना, आखिर एन कृष्णन बंगलोर के एक 5 सितारा होटल के "शेफ़" रह चुके हैं (इतने बड़े होटल के शेफ़ की तनख्वाह जानकर क्या करेंगे)। कृष्णन बताते हैं कि आज सुबह उन्होंने दही चावल तथा घर के बने अचार का मेनू तय किया है, जबकि शाम को वे इडली-सांभर बनाने वाले हैं… हम लोग भी तो एक जैसा भोजन नहीं खा सकते, उकता जाते हैं, ऐसे में क्या उन लोगों को भी अलग-अलग और ताज़ा खाना मिलने का हक नहीं है?"। कृष्णन की मदद के लिये दो रसोईये हैं, तीनों मिलकर नाश्ता तथा दोपहर और रात का खाना बनाते हैं, और अपनी गाड़ी लेकर भोजन बाँटते हैं, न सिर्फ़ बाँटते हैं बल्कि कई मनोरोगियों और विकलांगों को अपने हाथ से खिलाते भी हैं।
कृष्णन कहते हैं कि "मैं साधारण भिखारियों, जो कि अपना खयाल रख सकते हैं उन्हें भोजन नहीं करवाता, लेकिन ऐसे बेसहारा जो कि विक्षिप्त अथवा मानसिक रोगी हैं यह हमसे पैसा भी नहीं मांगते, और न ही उन्हें खुद की भूख-प्यास के बारे में कुछ पता होता है, ऐसे लोगों के लिये मैं रोज़ाना भोजन ले जाता हूं"। चौराहों, पार्कों और शहर के विभिन्न ठिकानों पर उनकी मारुति वैन रुकती है तो जो उन्हें नहीं जानते ऐसे लोग उन्हें हैरत से देखते हैं। लेकिन "पेट की भूख और कृष्णन द्वारा दिये गये मानवीय संवेदना के स्पर्श" ने अब मानसिक रोगियों में भी इतनी जागृति ला दी है कि वे सफ़ेद मारुति देखकर समझ जाते हैं कि अब उन्हें खाना मिलने वाला है। कहीं-कहीं किसी व्यक्ति की हालत इतनी खराब होती है कि वह खुद ठीक से नहीं खा सकता, तब कृष्णन उसे अपने हाथों से खिलाते हैं। कृष्णन बताते हैं कि उन्होंने ऐसे कई बेसहारा मानसिक रोगी भी सड़कों पर देखे हैं, जिन्होंने 3-4 दिन से पानी ही नहीं पिया था, क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था पानी कहाँ मिलेगा, और पीने का पानी किससे और कैसे माँगा जाये।
इतना पुण्य का काम करने के बावजूद भोजन करने वाला व्यक्ति, कृष्णन को धन्यवाद तक नहीं देता, क्योंकि उसे पता ही नहीं होता कि कृष्णन उनके लिये क्या कर रहे हैं। सात वर्ष पूर्व की वह घटना आज भी उन्हें याद है जब कृष्णन अपने किसी काम से मदुराई नगर निगम आये थे और बाहर एक पागल व्यक्ति बैठा अपना ही मल खा रहा था, कृष्णन तुरन्त दौड़कर पास की दुकान से दो इडली लेकर आये और उसे दीं… जब उस पागल ने उसे खाया अचानक उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आई… कृष्णन कहते हैं कि "उसी दिन मैंने निश्चय कर लिया कि अब ऐसे लोगों के लिये भोजन की व्यवस्था मुझे ही करना है, उस भूखे पागल के चेहरे पर आई हुई मुस्कुराहट ही मेरा धन्यवाद है, मेरा मेहनताना है…"।
इस सारी प्रक्रिया में कृष्णन को 12,000 रुपये प्रतिदिन का खर्च आता है (भोजन, सब्जियाँ, रसोईयों की तनख्वाह, मारुति वैन का खर्च आदि)। वे कहते हैं कि अभी मेरे पास 22 दिनों के लिये दानदाता मौजूद हैं जो प्रतिमाह किसी एक तारीख के भोजन के लिये 12,000 रुपये रोज भेजते हैं, कुछ रुपया मेरे पास सेविंग है, जिसके ब्याज आदि से किसी तरह मेरा काम 7 साल से लगातार चल रहा है। इन्फ़ोसिस और TVS कम्पनी ने उन्हें 3 एकड़ की ज़मीन दी है, जिस पर वे ऐसे अनाथ लोगों के लिये एक विश्रामगृह बनवाना चाहते हैं। सात साल पहले का एक बिल दिखाते हुए कृष्णन कहते हैं कि "किराने का यह पहला बिल मेरे लिये भावनात्मक महत्व रखता है, आज भी मैं खुद ही सारा अकाउंट्स देखता हूं और दानदाताओं को बिना माँगे ही एक-एक पैसे का हिसाब भेजता हूं। आर्थिक मंदी की वजह से दानदाताओं ने हाथ खींचना शुरु कर दिया है, लेकिन मुझे बाकी के आठ दिनों के लिये भी दानदाता मिल ही जायेंगे, ऐसा विश्वास है"। इलेक्ट्रानिक मीडिया में जबसे उन्हें कवरेज मिला और कुछ पुरस्कार और सम्मान आदि मिले तब से उनकी लोकप्रियता बढ़ गई, और उन्हें अपने काम के लिये रुपये पैसे की व्यवस्था, दान आदि मिलने में आसानी होने लगी है।
कृष्णन अभी तक अविवाहित हैं, और उनकी यह शर्त है कि जिसे भी मुझसे शादी करना हो, उसे मेरा यह जीवन स्वीकार करना होगा, चाहे किसी भी तरह की समस्याएं आयें। कृष्णन मुस्कराते हुए कहते हैं कि "…भला ऐसी लड़की आसानी से कहाँ मिलेगी, जो देखे कि उसका पति दिन भर दूसरों के लिये खाना बनाता रहे और घूम-घूमकर बाँटता रहे…"। प्रारम्भ में उनके माता-पिता ने भी उनकी इस सेवा योजना का विरोध किया था, लेकिन कृष्णन दृढ़ रहे, और अब वे दोनों इस काम में उनका हाथ बँटाते हैं, इनकी माँ रोज का मेनू तैयार करती है, तथा पिताजी बाकी के छोटे-मोटे काम देखते हैं। पिछले 7 साल में गर्मी-ठण्ड-बारिश कुछ भी हो, आज तक एक दिन भी उन्होंने इस काम में रुकावट नहीं आने दी है। जून 2002 से लेकर अक्टूबर 2008 तक वे आठ लाख लोगों को भोजन करवा चुके थे। रिश्तेदार, मित्र और जान-पहचान वाले आज भी हैरान हैं कि फ़ाइव स्टार के शेफ़ जैसी आलीशान नौकरी छोड़कर उन्होंने ऐसा क्यों किया, कृष्णन का जवाब होता है… "बस ऐसे ही, एक दिन अन्दर से आवाज़ आई इसलिये…"।
कृष्णन जैसे लोग ही असली महात्मा हैं, जिनके काम को भरपूर प्रचार दिया जाना चाहिये, ताकि "समाज की इन अगरबत्तियों" की सुगन्ध दूर-दूर तक फ़ैले, मानवता में लोगों का विश्वास जागे, तथा यह भावना मजबूत हो कि दुनिया चाहे कितनी भी बुरी बन चुकी हो, अभी भी ऐसा कुछ बाकी है कि जिससे हमें संबल मिलता है।
(आभारः विस्फोट.कॉम)