25 March 2009

हल्ला बोल।

इन दिनों जब भाजपा नेता वरुण गांधी के मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलने का मुद्दा गरमाया हुआ है, तो मुझे मेरे मुस्लिम दोस्तों की याद आ रही है।
मेरा एक मुसलमान दोस्त है। तारिक अहमद। बिल्कुल बचपन का। मुसलमानों में अगर वो किसी को जानता है तो सिर्फ अपने रिश्तेदारों को। बाकी हमारे ग्रुप के अलावा उसकी किसी दूसरे मुसलमान लड़के से कम ही दोस्ती है। मतलब हम हिंदुओं के बीच घिरा एक अकेला मुसलमान दोस्त। मुझे याद आता है कि हम उससे अक्सर मजाक किया करते थे। जब कोई साथी उसे 'कटुआ' कहता, तो कभी वो चुप रहकर सुन लेता तो कभी गाली देता। कभी हम उसे चिढ़ाते की क्या बे घर पर “बड़का” बना है, तब वो गंभीर होकर कहता, ‘हमलोग नहीं खाते हैं।’ ईद पर जब वो खाने का निमंत्रण देता तो उसे खुद से ही बार-बार सफाई देनी पड़ती थी कि हम हिंदु दोस्तों के लिए घर में अलग से मांस पकाया गया है। वो कभी भी खुलकर हमसे बातें नहीं किया करता था। उसकी बातों में हमेंशा एक झिझक साफ महसूस होती थी। वह आज भी मेरा दोस्त है। हम दोनों बड़े हो चुके हैं। मैं पत्रकार बन गया हूं और बतौर पत्रकार अब उसकी ‘झिझक’ का राज समझ में आने लगा है। मुसलमानों के साथ का यह मेरा पहला अनुभव था।
दूसरा अनुभव अलीगढ़ में हुआ। वहां अमर उजाला में रिपोर्टिंग करते हुए मुझे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जिम्मेदारी मिली थी। वहां चपरासी से लेकर कुलपति तक लगभग नब्बे फीसदी मुसलमान ही हैं। सभी जानते हैं कि मुस्लिम छात्रों की संख्या भी वहां सबसे अधिक है। चूंकि काम ऐसा था कि सभी से बात करनी होती थी। मेरे अमुवि कवर करने के दौरान ही दिल्ली में बाटला हाउस इंकाउंटर हुआ था। चौबीस घंटे के चैनलों पर चर्चा जोरों पर थी। पूरे देश के मुसलमानों में इस घटना को लेकर उबाल था। जाहिर है, मुस्लिम बुद्धिजीवियों का गढ़ ‘अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय’ भी उबल रहा था। मगर भीतर-भीतर। उस दौरान कैंपस में एक अजीब सा सन्नाटा महसूस किया था मैने। एक दिन मैं परीक्षा कंट्रोलर प्रो. मो. इरफान के आफिस में बैठा हुआ था। वो बुजुर्ग हैं और महामशीन बनाने के प्रोजेक्ट में उन्हें जेनेवा से बुलावा भी आ चुका था। मुझे याद है कि इस घटना कि चर्चा करने पर वो एकदम से भड़क गए थे। मीडिया द्वारा की जा रही रिपोर्टिंग को लेकर वो काफी आहत थे। अपने दर्द को जाहिर करते हुए उन्होंने मुझसे पूछा था कि मीडिया आखिर हर मुसलमान को आतंकवादी करार देने पर क्यों तुला हुआ है? मैने पूछा था कि आखिर हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों पकडा जाता है? जवाब में उन्होंने फिर सवाल उछाला कि उनमें भारतीय मुसलमानों की संख्या कितनी होती है? मुझे उनका सवाल जायज लगा था और मैं चुप रह गया था।
मुद्दे की बात। अब, जब वरुण गांधी के मुस्लिम विरोधी बयान को लेकर काफी शोर मच चुका है और देश के बुद्धिजीवी जुबान की लड़ाई छेड़ चुके हैं। कुछ दोगले किस्म के नेता चुनावों में अपने नफा-नुकसान को देखते हुए इसे भुनाने में जुट चुके हैं। आम मुसलमानों की चुप्पी समझ में नहीं आ रही है। आखिर क्यों चुप हैं मुसलमान? किसी ने आपको गाली दे दी और आप चुप हो गए इस इंतजार में कि इस गाली का जवाब कोई नेता दे और आप संतुष्ट हो लें। मुसलमान यह कब समझेंगे कि चाहे कोई भी नेता हो, अगर वो उनकी खिलाफत करता है तो वोट के लिए, अगर सहलाता है तो भी वोट के लिए। ठीक वैसे ही जैसे वो दलितों के साथ करते हैं। इस देश पर आपका भी उतना ही हक है जितना हिंदुओं का है। क्योंकि बंटवारे के समय आपने इस देश को खुद चुना था। तब, जब आपकी भावनाओं को ठेस पहुंचाया जा रहा है तो क्यों नहीं आप सड़क पर निकल कर विरोध जता रहे हैं। क्यों इस ताक में हैं कि कोई आपको रेलगाड़ी उपलब्ध कराए और तब आप दिल्ली आकर अपना विरोध दर्ज कराएं। आप जहां हैं वहीं विरोध करें। ताकि फिर कोई नेता, चाहे वो किसी पार्टी का हो, दुबारा ऐसी हिमाकत न कर सके। बाहर निकल, हल्ला बोल..........

21 March 2009

मेरा पहला पोस्ट

यशवंत भैया (भड़ास बाले) ने कई बार कहा कि अपना ब्लॉग बना लो। सो पिछले हफ्ते ही इसे बनाया। तब से कुछ लिखने से बचता आ रहा था। पहले से ही इतने ब्लॉग बने पड़े हैं। सोचता हूं कि मेरा ब्लॉग कौन देखेगा। क्योंकि मेरे लिए ब्लॉग कोई डिजिटल डायरी नहीं है जिसमें मैं अपनी बातें लिखता रहूं। मेरे लिए यह संसार के लोगों से जुड़ने का जरिया है। जिनसे मैं अपने देश की, अपने समाज की समस्याएं और उसमें हम युवाओं की भूमिका की बात साझा कर सकूं। हालांकि मैं कितना जुड़ पाऊंगा, पता नहीं। लेकिन, मेरा उद्देश्य यही रहेगा।
"त्यागपथ", यही नाम है मेरे ब्लॉग का। मैं युवा हूं। 27 साल उम्र है मेरी। पेशे से पत्रकार हूं। असंतुष्ट हूं। नौकरी से नहीं, पैसे की वजह से भी नहीं। बल्कि, इस वजह से क्योंकि मैं सिर्फ अपने लिए जी रहा हूं, जो मेरा उद्देश्य नहीं है। सड़क पर निकलता हूं तो बाराखंभा रेड लाइट पर दो पैसे के लिए लोहे के जंजीरों से खेलती दो साल की रेड लाइट वाली 'मुनिया' का बचपन कचोटता है। मुंबई में उत्तर भारतीय लोगों को पिटते देख देश की राजनीति पर रो पड़ता हूं। कल तक एक-दूसरे को गाली देने वाले लालू और पासवान की गलबहियां करती फोटों अखबारों में देख उन लाखों लोगों पर चींखने का मन होता है, जो उन्हें फिर वोट देंगे।
इन स्थितियों पर खुद से पूछता हूं कि साठ फीसदी युवा वोटर वाले इस देश में कहां हैं युवा, जो इनसे लड़ने बाहर नहीं निकलना चाहते। क्यों नहीं किसी एक बिंदू पर हम सब मिलकर साथ खड़े हो जातें? कई युवा मित्र हैं जिनके सीने में आग धधक रही है। जो कुछ करना चाहते हैं। कई कर भी रहे हैं। यकीं मानिए, हम सभी के दिलों में एक ही बात चल रही है। बस एक वक्त पर एक साथ खड़े होने की जरूरत है। हम युवाओं की साथ निकलने वाली एक हुंकार "उनलोगों" को मजबूर करने के लिए काफी है। अपनी ताकत पहचानो। "त्यागपथ" पर मिलकर दो कदम चलो, जो हम चाहेंगे वही होगा।

परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं,
हवा में सनसनी घोले हुए हैं।
तुम्हीं कमजोर पड़ते जा रहे हो,
तुम्हारे ख्वाब तो शोले हुए हैं।
(दुष्यंत कुमार की पंक्तियां)