25 April 2009

राजीव, रिचा, सौम्या, आनंद कहां हो तुमलोग?

हर किसी को अपना बचपन, अपना स्कूल और स्कूल के दोस्त प्यारे होते हैं। मुझे भी हैं। स्कूल से जुड़ी कई बातें होती हैं जिसे हम ताउम्र याद रखना चाहते हैं। वो स्कूल में एक-दूसरे की कॉपी देख जल्दी से होमवर्क बना लेना। क्लास टीचर जब नाखुन चेक करे तो अपना नंबर आने से पहले जल्दी से बढ़े हुए नाखूनों को चबाकर खा जाना। और ऐसी ही कई यादें और। मगर, कैरियरनुमा मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते इस सफर में स्कूल के कई दोस्त रास्ते में ही रह जाते हैं। मेरे भी रह गए। वो आज किस शहर में हैं। क्या कर रहे हैं, मुझे कुछ नहीं पता। कहते हैं इंटरनेट लोगों को मिला देता है। मैं भी आज एक ऐसी ही कोशिश कर रहा हूं। बचपन में स्कूल के जमाने से अब पत्रकारिता में आने तक काफी वक्त बीत चुका है। आज इस उम्मीद से लिखने बैठा हूं कि शायद कोई मेरे ब्लॉग से टकरा जाए और मुझे पहचान लें। तब से शक्ल भी काफी बदल चुकी है इसलिए परिचय से शुरू करता हूं।
बिहार में एक छोटा सा कस्बा है, गोपालगंज। वहीं जन्मा। वहां के इकलौते स्टेडियम जिसे हम ‘मिंज स्टेडियम’ कहते हैं उसी से सटे किंडर गार्टेन नाम के स्कूल में शुरुआती पढ़ाई हुई। आंठवीं तक यहीं पढ़ा। जो दोस्त छूट गए उनमें पहला नाम राजीव गोस्वामी का है। शक्ल की बात करें तो बस उसके कटे होठ याद हैं। शायद तब हम पांचवी में थे, जब उसके पापा का तबादला बगल के सिवान जिले में हो गया। उसके बाद उससे बस एक बार मुलाकात हुई। एक बार उसने मुझे पत्र भी लिखा था। एकाध बार फोन पर बात भी हुई थी,...शायद। फिर वो कहां गया, कोई खबर नहीं। मेरी, उसकी और बिकास की दोस्ती अच्छी खासी थी। उससे मिलने का मन अब भी करता है।
दूसरा नाम आनंद नाम के दोस्त का है। वहीं स्कूल के पीछे मकान में रहता था। सांवला सा। कभी-कभार शाम को हम उसके घर जाया करते थे। उसके बारे में बहुत कुछ याद नहीं है। शायद वो भी ब्लॉग देखता हो औऱ मुझे मिल जाए। एक लड़की थी रीचा प्रियम। अमूमन छोटे शहरों में साथ पढ़ते हुए भी लड़के-लड़कियों के बीच दोस्ती जैसी कोई बात नहीं होती है। वैसा ही मेरे साथ भी था। आंठवी तक वो हमारे साथ ही पढ़ी। यादोपुर रोड पर नागा राम का मकान था, वहीं रहती थी वो। उसके साथ का एक वाकया दे रहा हूं, शायद वो पहचान जाए। हमारे स्कूल में सुबह स्टूडेंट विल होती थी। सबको प्रेयर के बाद बारी-बारी से उस विल को करना होता था औऱ सभी बच्चे उसे दोहराते थे। यह क्लास के रौल नंबर के हिसाब से होता था। मुझे याद है जब मेरी बारी आती तो मैं दो-तीन दिन स्कूल देरी से पहुंचता था। तब तक अगले लड़कों की बारी आ जाती और मैं साफ बच जाता था। एक बार यही चालाकी मेरे पहले वाले लड़के ने कर दी थी। तब दुर्घटनावश मैं फंस गया। सच कहूं तो मुझे वो 'विल' बिल्कुल याद नहीं थी। स्कूल के कैंपस में पहले मेरे क्लास का नाम और तब मेरा रौल नंबर पुकारा गया। अपनी तो सिट्टी-पिट्टी गुम थी। मैं डरते-सहमते पहुंचा। सिर्फ पहली लाइन बोल पाया था मैं। 'भारत हमारा देश है'। हां.... यही थी पहली लाइन। फिर मैं चुप। देर होने लगी। सभी अगली लाइन का इंतजार कर रहे थे। पर न अपने को दूसरी लाइन याद थी न मैंने बोला। तब रीचा रोज अपनी सहेलियों के साथ प्रेयर करवाती थी। देर होता देख उसने मेरी तरफ गुर्रा कर और मैने उसकी तरफ याचना के भाव से देखा। वो भांप गई कि पट्ठे को याद नहीं है। मगर क्लास की इज्जत जाती देख कर वह धीरे से दूसरी लाइन फुसफुसाई 'हम सब भारतवासी भाई-बहन है।' चूंकि इस लाइन से मुझे खासी चिढ़ थी औऱ जब दूसरे लोग स्टूडेंट विल पढ़ते तो मैं इसे अक्सर गोल कर जाया करता था। लेकिन उस दिन मैं ढंग से फंसा था, मुझे बोलना पड़ा। फिर तो वो अगली लाइन कहती, उसको सुनकर मैं बोलता फिर नियमानुसार बाकी के बच्चे। ऐसे किसी तरह उसकी वजह से बच पाया।
एक प्रकरण और है। आंठवी में एक बार जब क्लास में कोई नहीं था, मैने उसके स्कूल बैग में बालू डाल दिया। बाद में बहुत बवेला़ मचा था। दूबे सर ने सभी लड़कों को विद्या की कसम खिलाई थी। मैंने खाया भी और हजम भी कर गया। हालांकि बाद में मुझे उसका अपराध बोध जरूर हुआ था। हालांकि कुछ और दोस्त याद आते हैं जो स्कूल में तो नहीं थे, मगर उनसे टकराया था। मिश्रा कालोनी में रहने के दौरान बबली जिसका दूसरा नाम सौम्या प्रियदर्शी भी था। उसकी याद भी ताजा है। सुना था वो शायद दिल्ली में ही है।
ये सभी मेरी यादों में अब भी कहीं न कहीं मौजूद हैं। जब भी मैं पिछले दिनों की बातें याद करता हूं ये आकर सामने खड़े हो जाते हैं। शायद कोई इसी बहाने मिल जाए। या उसे जानने वाला कोई बंदा मेरी मदद कर सके। अपनी आईडी औऱ नंबर दे रहा हूं।

अशोक.....दिल्ली से. ईमेल.. tyagpath@gmail.com, .. मोबाइल नंबर..09711666056

09 April 2009

जर्नलिस्ट जनरैल सिंह से मेरी बातचीत

भगत सिंह ने जब एसेंबली में बम फोड़ने की बात कही थी तो उनके साथी चौंके थे। भगत सिंह का जवाब था कि सत्ता में बैठे लोग बहरे होते हैं। उन्हें सिर्फ धमाके सुनाई पड़ते हैं। जनरैल सिंह ने जब चिदंबरम पर जूता फेंका तो मुझे भगत सिंह की वह बात अचानक याद आ गई। सालों से न्याय के लिए लड़ते, गिड़गिड़ाते सिख समुदाय को 25 वर्ष बाद तक न्याय नहीं मिल पाया था। क्योंकि सत्ता में बैठे लोग वाकई बहरे थे। और वह जनरैल के जूते के धमाके से ही जगे। क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर क्या वजह होती है, जब अपनी कलम के बूते आम जनता को आंदोलित कर देने वाला पत्रकार खुद आंदोलन को मजबूर हो जाता है।
16 फरवरी 1973 में दिल्ली में जन्में जनरैल सिंह ने शुरुआती पढ़ाई लोकल सरकारी स्कूल से की। स्नातक और आगे की शिक्षा साउथ कैंपस के डीएवी कॉलेज में हुई है। पिछले एक दशक से वह दैनिक जागरण के साथ हैं। अच्छे समाज के निर्माण में अपनी भूमिका तलाशते हुए जनरैल पत्रकारिता में आएं। वह चाहते हैं कि सबके साथ न्याय हो। कहते हैं “किसी के साथ भी अन्याय हो तो मुझे पीड़ा होती है।” मैं एक मीडिया न्यूज पोर्टल (भड़ास4मीडिया)के साथ जुड़ा हूं। मैने जनरैल की पीड़ा, जूता फेंकने की उनकी मजबूरी और इस घटना के बाद देश में हो रही राजनीति के बारे में उनसे बातचीत की। नीचे जनरैल से बातचीत का ब्यौरा हैः-

सवालः आप इस तरह का कदम उठाने के लिए क्यों मजबूर हुए?
जवाबः सिख दंगों के आरोपी कांग्रेसी नेताओं को सीबीआई से क्लीनचिट मिलने पर चिदंबरम ने कहा था कि मैं खुश हूं, क्योंकि मेरी पार्टी के लोगों को क्लीनचिट मिल गई। मेरा कहना था कि आप सिर्फ किसी पार्टी के नेता नहीं हैं, बल्कि पूरे देश के गृहमंत्री हैं। आप खुश कैसे हो सकते हैं, जब एक समुदाय को लंबे समय से न्याय नहीं मिला और वह दुखी है।

सवालः क्या एक पत्रकार को ऐसा करना चाहिए था?
जवाबः नहीं। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। एक पत्रकार होने के नाते मेरा कदम गलत था। लेकिन एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक होने के नाते मैं समझता हूं कि लोगों को न्याय मिलना चाहिए। मेरा इश्यू ठीक था।

सवालः क्या आपने यह नहीं सोचा कि आप पर बड़ी कारवाई हो सकती है? डरे नहीं आप?
जवाबः मेरा इरादा बुरा नहीं था। मैं उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता था। मैने उनके साइड में जूता फेंका। मेरा विरोध सांकेतिक था।

सवालः आपको नहीं लगता कि अगर आम चुनाव नहीं होते तो आपको इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जाता?
जवाबः इस बारे में मैं कैसे कुछ कह सकता हूं। लेकिन उन्होंने मुझे छोड़ दिया यह समझदारी भरा फैसला था। उन्होंने समझा कि मैने भावावेश में ऐसा किया। मैं चिदंबरम की तारीफ करता हूं।

सवालः घटना के बाद आपके साथियों की क्या प्रतिक्रिया थी?
जवाबः सभी शॉक्ड् थे। किसी ने एक्सेप्ट नहीं किया था कि मैं ऐसा कर सकता हूं। मैंने हमेशा मर्यादित जर्नलिज्म की बात की है।

सवालः क्या दैनिक जागरण के आफिस से फोन आया था? संजय गुप्ता या फिर संपादक का?
जवाबः नहीं, मुझसे अभी तक किसी ने कोई बात नहीं की है। मुझे कोई मैसेज नहीं मिला है।

सवालः आप आफिस जा रहे हैं?
जवाबः नहीं।

सवालः आपने पत्रकारिता को क्यों चुना?
जवाबः अच्छे समाज के निर्माण के लिए मैने यह क्षेत्र चुना था। हमारे समुदाय से काफी कम लोग इस फिल्ड में आते हैं, यह भी एक वजह थी। मैं समझता हूं कि हमें न्याय के लिए लड़ना चाहिए। मुझमें हमेशा निष्पक्ष पत्रकारिता का जज्बा रहा है।

सवालः घरवालों की क्या प्रतिक्रया थी?
जवाबः सभी सदमें में हैं। जब से घटना हुई है मैं घर नहीं गया। घर पर कई पॉलिटिकल लीडर आ रहे हैं। मैं उनसे बचना चाह रहा हूं।

सवालः अकाली दल ने आपको टिकट देने की बात कही है, क्या आप राजनीति में आएंगे?
जवाबः मुझे टिकट नहीं चाहिए। न ही मुझे राजनीति में आना है। मैं नहीं चाहता कि इस मुद्दे को लेकर कोई राजनीति हो या कोई पार्टी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंके। देश में जाति, मजहब, या क्षेत्र की राजनीति बंद होनी चाहिए। एक टीवी चैनल ने इस मुद्दे पर बहस कराई थी। उसमें 82 फीसदी लोगों ने कहा कि जनरैल का (मेरा) मुद्दा सही है। वह सभी धर्मों के लोग थे। मैं चाहता हूं कि आमलोग जागरूक हो।

सवालः क्या 84 के दंगों में आपके परिवार का कोई सदस्य भी शिकार हुआ था?
जवाबः हां। लेकिन वह कोई इश्यू नहीं था। मैं भारतीय नागरिक की तरह बात करता हूं। सबके साथ न्याय होना चाहिए। किसी के साथ अन्याय हो तो मुझे पीड़ा होती है।

04 April 2009

युवाओं की जंग लड़ते प्रेम और रंजन

इन दोनों युवाओं के नाम प्रेमपाल सिंह और रंजन राणा हैं। इसमें से प्रेम इस साल लोकसभा चुनाव लड़ रहे है। और रंजन हैं उनके रणनीतिकार, सलाहकार। बाकी अमित चौधरी, तेजवीर सिंह और प्रवेश यादव ये तीनों हर पल उनके साथ जुटे पड़े हैं। इन सबको मैं असली हीरो मानता हूं, क्योंकि इन्होंने कहा नहीं, कर के दिखाया। देश में युवा शक्ति के शोर के बीच ये उस डगर पर निकल पड़े हैं जिसके बारे में सोचते तो बहुत हैं मगर चल नहीं पाते। प्रेमपाल सिंह अलीगढ़ से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव में उतर चुके हैं। इन्हें पता है कि जीतना शायद सपना भर है। मगर इन्होंने हिम्मत की है। अपने साथियों के साथ ये गांव की पगडिंडियां और उबल-खाबड़ रास्तों पर निकल चुके हैं।
इन सभी को मैं सिर्फ पिछले छह महीने से जानता हूं। तब मैं अलीगढ़, अमर-उजाला में बतौर अमुवि रिपोर्टर काम कर रहा था। महाराष्ट्रा में उत्तर भारतीयों पर हमले के खिलाफ मैं अंदर से ही उबल रहा था। वहां की घटना ने मेरे अंदर रोष भर दिया था। क्षेत्रवाद की घृणित राजनीति और युवाओं के संवैधानिक अधिकारों के हनन को देखकर मैं बैचेन था, परेशान था। एक दिन मैनें तय कर लिया कि मुझे इसकी मुखालफत करनी है। तब मैं अलीगढ़ के अखबारों में अक्सर कुछ खबरें पढ़ा करता था। छात्रों के साथ कालेज प्रशासन ने कोई गलती की तो हंगामा, परीक्षा का हॉल मार्क नहीं मिला तो धरना, पुलिस ने किसी की रिपोर्ट नहीं लिखी तो थाने पर अनशन, भूख हड़ताल। और इसी तरह की कई खबरें। इन सभी खबरों में इन दोनों के नाम अक्सर होते थे। मैने अपने एजूकेशन बीट के रिपोर्टर अभिषेक सिंह से रंजन का नंबर लेकर उसे फोन किया। एक घंटे के भीतर हम साथ थे। वो पहली मुलाकात थी हमारी। मैने सीधे उससे अपनी योजना बताई। कहा कि मुझे तुमलोगों का साथ चाहिए। उसने कहा भैया आप तो नौकरी करते हैं, उसका क्या होगा? मैने कहा छुट्टी लेकर करूंगा, नहीं मिली तो नौकरी छोड़ दूंगा।
दूसरे दिन फिर हम साथ बैठे। तब प्रेम से मेरी पहली मुलाकात हुई। रंजन जितना सुलझा हुआ था, प्रेम उतना ही अक्खड़ और सीधी बात करने वाला था। खड़ी बात बोलता, अच्छा लगे तो ठीक बुरा लगे तो ठेंगे से। मैनें उन्हें अपनी योजना बताई कि हमें लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, गोरखपुर, पटना, मेरठ और दिल्ली के विश्वविद्यालयों में जाकर युवाओं के बीच हस्ताक्षर अभियान चलाना है और इस विरोधपत्र को राष्ट्रपित को सौंपना है। पूरे इक्कीस दिनों का सफर था। हमने 1 अक्तूबर को शुरू किया और 21 अक्तूबर को दिल्ली पहुंचना था।
प्रेम, रंजन, अमित और प्रवेश हर मौके पर जिस जीवटता से मेरे साथ खड़े रहे वो आश्चर्यजनक था। आप सिर्फ अंदाजा भर लगा सकते हैं कि ऐसे युवा जिनसे आप कभी मिले न हो आपके साथ ऐसे सफर पर चल परे जहां न खाने का वक्त हो न सोने की जगह। इस तरह मेरी लड़ाई 'हमारी' लड़ाई हो गई थी औऱ हम निकल पड़े थे अपनी आवाज को लोगों तक पहुंचाने, अपने विरोध को जीने। 21 अक्तूबर को लगभग पांच सौ और लड़कों को लेकर हम दिल्ली पहुंचे। तभी प्रेम कहा करता था कि भैया मैं चुनाव लड़ूंगा और आज वह तैयार है। हम सबको पता है कि इन्हें न तो शहर के पूंजीपतियों से कोई चंदा मिलेगा न खुद किसी एक की जेब में इतने पैसे हैं कि वो किसी का मुकाबला कर सके। इसीलिए वो मेरा हीरो है क्योंकि उसने सिर्फ कहा नहीं बल्कि कर के दिखाया। तमाम संसाधनों के अभाव में सिर्फ अपने और अपने दोस्तों के जुनून के बूते।
आज सुबह ही रंजन का फोन आया था, बता रहा था, भैया 11 मई को नामिनेशन है। आपको आना है। वह चुनाव क्षेत्र में ही था। ये वो लड़के हैं, जो न गांधी के वंशजों के साये में हैं, न संघ की छाया में। इनके सर पर न तो मार्क्स का हाथ है न समाजवाद का। न धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हैं न जाति के आधार पर उन्हें तोड़ते हैं। ये अगर जानते हैं तो सिर्फ "इंकलाब"। मुझे लगता है कि वे युवाओं की जंग लड़ रहे हैं। हो सकता है कि आपको लगे कि मैं इनके बारे में कुछ ज्यादा ही लिख रहा हूं। क्योंकि ये मेरे सफर में साथ थे। मगर एकबारगी यह सोचिए कि अगर हममे से किसी को ऐसे आदमी ने 21 दिनों के लिए चलने के लिए कहा होता जिसे हम जानते नहीं तो क्या हम जाते? शायद नहीं। हमें इनका उत्साह बढ़ाना चाहिए। एक युवा होने के नाते एक निश्छल, निष्कपट प्रयास को तो सराहा ही जा सकता है। मैं उन दोनों के फोन नंबर नीचे दे रहा हूं। अगर कोई उन्हें फोन करेगा तो उन्हें हौसला मिलेगा। हम इतना तो कर ही सकते हैं। है ना?

प्रेमपाल सिंह == 09359055566
रंजन राणा == 09368170076