हर किसी को अपना बचपन, अपना स्कूल और स्कूल के दोस्त प्यारे होते हैं। मुझे भी हैं। स्कूल से जुड़ी कई बातें होती हैं जिसे हम ताउम्र याद रखना चाहते हैं। वो स्कूल में एक-दूसरे की कॉपी देख जल्दी से होमवर्क बना लेना। क्लास टीचर जब नाखुन चेक करे तो अपना नंबर आने से पहले जल्दी से बढ़े हुए नाखूनों को चबाकर खा जाना। और ऐसी ही कई यादें और। मगर, कैरियरनुमा मंजिल तक पहुंचते-पहुंचते इस सफर में स्कूल के कई दोस्त रास्ते में ही रह जाते हैं। मेरे भी रह गए। वो आज किस शहर में हैं। क्या कर रहे हैं, मुझे कुछ नहीं पता। कहते हैं इंटरनेट लोगों को मिला देता है। मैं भी आज एक ऐसी ही कोशिश कर रहा हूं। बचपन में स्कूल के जमाने से अब पत्रकारिता में आने तक काफी वक्त बीत चुका है। आज इस उम्मीद से लिखने बैठा हूं कि शायद कोई मेरे ब्लॉग से टकरा जाए और मुझे पहचान लें। तब से शक्ल भी काफी बदल चुकी है इसलिए परिचय से शुरू करता हूं।
बिहार में एक छोटा सा कस्बा है, गोपालगंज। वहीं जन्मा। वहां के इकलौते स्टेडियम जिसे हम ‘मिंज स्टेडियम’ कहते हैं उसी से सटे किंडर गार्टेन नाम के स्कूल में शुरुआती पढ़ाई हुई। आंठवीं तक यहीं पढ़ा। जो दोस्त छूट गए उनमें पहला नाम राजीव गोस्वामी का है। शक्ल की बात करें तो बस उसके कटे होठ याद हैं। शायद तब हम पांचवी में थे, जब उसके पापा का तबादला बगल के सिवान जिले में हो गया। उसके बाद उससे बस एक बार मुलाकात हुई। एक बार उसने मुझे पत्र भी लिखा था। एकाध बार फोन पर बात भी हुई थी,...शायद। फिर वो कहां गया, कोई खबर नहीं। मेरी, उसकी और बिकास की दोस्ती अच्छी खासी थी। उससे मिलने का मन अब भी करता है।
दूसरा नाम आनंद नाम के दोस्त का है। वहीं स्कूल के पीछे मकान में रहता था। सांवला सा। कभी-कभार शाम को हम उसके घर जाया करते थे। उसके बारे में बहुत कुछ याद नहीं है। शायद वो भी ब्लॉग देखता हो औऱ मुझे मिल जाए। एक लड़की थी रीचा प्रियम। अमूमन छोटे शहरों में साथ पढ़ते हुए भी लड़के-लड़कियों के बीच दोस्ती जैसी कोई बात नहीं होती है। वैसा ही मेरे साथ भी था। आंठवी तक वो हमारे साथ ही पढ़ी। यादोपुर रोड पर नागा राम का मकान था, वहीं रहती थी वो। उसके साथ का एक वाकया दे रहा हूं, शायद वो पहचान जाए। हमारे स्कूल में सुबह स्टूडेंट विल होती थी। सबको प्रेयर के बाद बारी-बारी से उस विल को करना होता था औऱ सभी बच्चे उसे दोहराते थे। यह क्लास के रौल नंबर के हिसाब से होता था। मुझे याद है जब मेरी बारी आती तो मैं दो-तीन दिन स्कूल देरी से पहुंचता था। तब तक अगले लड़कों की बारी आ जाती और मैं साफ बच जाता था। एक बार यही चालाकी मेरे पहले वाले लड़के ने कर दी थी। तब दुर्घटनावश मैं फंस गया। सच कहूं तो मुझे वो 'विल' बिल्कुल याद नहीं थी। स्कूल के कैंपस में पहले मेरे क्लास का नाम और तब मेरा रौल नंबर पुकारा गया। अपनी तो सिट्टी-पिट्टी गुम थी। मैं डरते-सहमते पहुंचा। सिर्फ पहली लाइन बोल पाया था मैं। 'भारत हमारा देश है'। हां.... यही थी पहली लाइन। फिर मैं चुप। देर होने लगी। सभी अगली लाइन का इंतजार कर रहे थे। पर न अपने को दूसरी लाइन याद थी न मैंने बोला। तब रीचा रोज अपनी सहेलियों के साथ प्रेयर करवाती थी। देर होता देख उसने मेरी तरफ गुर्रा कर और मैने उसकी तरफ याचना के भाव से देखा। वो भांप गई कि पट्ठे को याद नहीं है। मगर क्लास की इज्जत जाती देख कर वह धीरे से दूसरी लाइन फुसफुसाई 'हम सब भारतवासी भाई-बहन है।' चूंकि इस लाइन से मुझे खासी चिढ़ थी औऱ जब दूसरे लोग स्टूडेंट विल पढ़ते तो मैं इसे अक्सर गोल कर जाया करता था। लेकिन उस दिन मैं ढंग से फंसा था, मुझे बोलना पड़ा। फिर तो वो अगली लाइन कहती, उसको सुनकर मैं बोलता फिर नियमानुसार बाकी के बच्चे। ऐसे किसी तरह उसकी वजह से बच पाया।
एक प्रकरण और है। आंठवी में एक बार जब क्लास में कोई नहीं था, मैने उसके स्कूल बैग में बालू डाल दिया। बाद में बहुत बवेला़ मचा था। दूबे सर ने सभी लड़कों को विद्या की कसम खिलाई थी। मैंने खाया भी और हजम भी कर गया। हालांकि बाद में मुझे उसका अपराध बोध जरूर हुआ था। हालांकि कुछ और दोस्त याद आते हैं जो स्कूल में तो नहीं थे, मगर उनसे टकराया था। मिश्रा कालोनी में रहने के दौरान बबली जिसका दूसरा नाम सौम्या प्रियदर्शी भी था। उसकी याद भी ताजा है। सुना था वो शायद दिल्ली में ही है।
ये सभी मेरी यादों में अब भी कहीं न कहीं मौजूद हैं। जब भी मैं पिछले दिनों की बातें याद करता हूं ये आकर सामने खड़े हो जाते हैं। शायद कोई इसी बहाने मिल जाए। या उसे जानने वाला कोई बंदा मेरी मदद कर सके। अपनी आईडी औऱ नंबर दे रहा हूं।
अशोक.....दिल्ली से. ईमेल.. tyagpath@gmail.com, .. मोबाइल नंबर..09711666056
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