09 April 2009

जर्नलिस्ट जनरैल सिंह से मेरी बातचीत

भगत सिंह ने जब एसेंबली में बम फोड़ने की बात कही थी तो उनके साथी चौंके थे। भगत सिंह का जवाब था कि सत्ता में बैठे लोग बहरे होते हैं। उन्हें सिर्फ धमाके सुनाई पड़ते हैं। जनरैल सिंह ने जब चिदंबरम पर जूता फेंका तो मुझे भगत सिंह की वह बात अचानक याद आ गई। सालों से न्याय के लिए लड़ते, गिड़गिड़ाते सिख समुदाय को 25 वर्ष बाद तक न्याय नहीं मिल पाया था। क्योंकि सत्ता में बैठे लोग वाकई बहरे थे। और वह जनरैल के जूते के धमाके से ही जगे। क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर क्या वजह होती है, जब अपनी कलम के बूते आम जनता को आंदोलित कर देने वाला पत्रकार खुद आंदोलन को मजबूर हो जाता है।
16 फरवरी 1973 में दिल्ली में जन्में जनरैल सिंह ने शुरुआती पढ़ाई लोकल सरकारी स्कूल से की। स्नातक और आगे की शिक्षा साउथ कैंपस के डीएवी कॉलेज में हुई है। पिछले एक दशक से वह दैनिक जागरण के साथ हैं। अच्छे समाज के निर्माण में अपनी भूमिका तलाशते हुए जनरैल पत्रकारिता में आएं। वह चाहते हैं कि सबके साथ न्याय हो। कहते हैं “किसी के साथ भी अन्याय हो तो मुझे पीड़ा होती है।” मैं एक मीडिया न्यूज पोर्टल (भड़ास4मीडिया)के साथ जुड़ा हूं। मैने जनरैल की पीड़ा, जूता फेंकने की उनकी मजबूरी और इस घटना के बाद देश में हो रही राजनीति के बारे में उनसे बातचीत की। नीचे जनरैल से बातचीत का ब्यौरा हैः-

सवालः आप इस तरह का कदम उठाने के लिए क्यों मजबूर हुए?
जवाबः सिख दंगों के आरोपी कांग्रेसी नेताओं को सीबीआई से क्लीनचिट मिलने पर चिदंबरम ने कहा था कि मैं खुश हूं, क्योंकि मेरी पार्टी के लोगों को क्लीनचिट मिल गई। मेरा कहना था कि आप सिर्फ किसी पार्टी के नेता नहीं हैं, बल्कि पूरे देश के गृहमंत्री हैं। आप खुश कैसे हो सकते हैं, जब एक समुदाय को लंबे समय से न्याय नहीं मिला और वह दुखी है।

सवालः क्या एक पत्रकार को ऐसा करना चाहिए था?
जवाबः नहीं। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। एक पत्रकार होने के नाते मेरा कदम गलत था। लेकिन एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक होने के नाते मैं समझता हूं कि लोगों को न्याय मिलना चाहिए। मेरा इश्यू ठीक था।

सवालः क्या आपने यह नहीं सोचा कि आप पर बड़ी कारवाई हो सकती है? डरे नहीं आप?
जवाबः मेरा इरादा बुरा नहीं था। मैं उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता था। मैने उनके साइड में जूता फेंका। मेरा विरोध सांकेतिक था।

सवालः आपको नहीं लगता कि अगर आम चुनाव नहीं होते तो आपको इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जाता?
जवाबः इस बारे में मैं कैसे कुछ कह सकता हूं। लेकिन उन्होंने मुझे छोड़ दिया यह समझदारी भरा फैसला था। उन्होंने समझा कि मैने भावावेश में ऐसा किया। मैं चिदंबरम की तारीफ करता हूं।

सवालः घटना के बाद आपके साथियों की क्या प्रतिक्रिया थी?
जवाबः सभी शॉक्ड् थे। किसी ने एक्सेप्ट नहीं किया था कि मैं ऐसा कर सकता हूं। मैंने हमेशा मर्यादित जर्नलिज्म की बात की है।

सवालः क्या दैनिक जागरण के आफिस से फोन आया था? संजय गुप्ता या फिर संपादक का?
जवाबः नहीं, मुझसे अभी तक किसी ने कोई बात नहीं की है। मुझे कोई मैसेज नहीं मिला है।

सवालः आप आफिस जा रहे हैं?
जवाबः नहीं।

सवालः आपने पत्रकारिता को क्यों चुना?
जवाबः अच्छे समाज के निर्माण के लिए मैने यह क्षेत्र चुना था। हमारे समुदाय से काफी कम लोग इस फिल्ड में आते हैं, यह भी एक वजह थी। मैं समझता हूं कि हमें न्याय के लिए लड़ना चाहिए। मुझमें हमेशा निष्पक्ष पत्रकारिता का जज्बा रहा है।

सवालः घरवालों की क्या प्रतिक्रया थी?
जवाबः सभी सदमें में हैं। जब से घटना हुई है मैं घर नहीं गया। घर पर कई पॉलिटिकल लीडर आ रहे हैं। मैं उनसे बचना चाह रहा हूं।

सवालः अकाली दल ने आपको टिकट देने की बात कही है, क्या आप राजनीति में आएंगे?
जवाबः मुझे टिकट नहीं चाहिए। न ही मुझे राजनीति में आना है। मैं नहीं चाहता कि इस मुद्दे को लेकर कोई राजनीति हो या कोई पार्टी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंके। देश में जाति, मजहब, या क्षेत्र की राजनीति बंद होनी चाहिए। एक टीवी चैनल ने इस मुद्दे पर बहस कराई थी। उसमें 82 फीसदी लोगों ने कहा कि जनरैल का (मेरा) मुद्दा सही है। वह सभी धर्मों के लोग थे। मैं चाहता हूं कि आमलोग जागरूक हो।

सवालः क्या 84 के दंगों में आपके परिवार का कोई सदस्य भी शिकार हुआ था?
जवाबः हां। लेकिन वह कोई इश्यू नहीं था। मैं भारतीय नागरिक की तरह बात करता हूं। सबके साथ न्याय होना चाहिए। किसी के साथ अन्याय हो तो मुझे पीड़ा होती है।

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