इन दोनों युवाओं के नाम प्रेमपाल सिंह और रंजन राणा हैं। इसमें से प्रेम इस साल लोकसभा चुनाव लड़ रहे है। और रंजन हैं उनके रणनीतिकार, सलाहकार। बाकी अमित चौधरी, तेजवीर सिंह और प्रवेश यादव ये तीनों हर पल उनके साथ जुटे पड़े हैं। इन सबको मैं असली हीरो मानता हूं, क्योंकि इन्होंने कहा नहीं, कर के दिखाया। देश में युवा शक्ति के शोर के बीच ये उस डगर पर निकल पड़े हैं जिसके बारे में सोचते तो बहुत हैं मगर चल नहीं पाते। प्रेमपाल सिंह अलीगढ़ से बतौर निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव में उतर चुके हैं। इन्हें पता है कि जीतना शायद सपना भर है। मगर इन्होंने हिम्मत की है। अपने साथियों के साथ ये गांव की पगडिंडियां और उबल-खाबड़ रास्तों पर निकल चुके हैं।
इन सभी को मैं सिर्फ पिछले छह महीने से जानता हूं। तब मैं अलीगढ़, अमर-उजाला में बतौर अमुवि रिपोर्टर काम कर रहा था। महाराष्ट्रा में उत्तर भारतीयों पर हमले के खिलाफ मैं अंदर से ही उबल रहा था। वहां की घटना ने मेरे अंदर रोष भर दिया था। क्षेत्रवाद की घृणित राजनीति और युवाओं के संवैधानिक अधिकारों के हनन को देखकर मैं बैचेन था, परेशान था। एक दिन मैनें तय कर लिया कि मुझे इसकी मुखालफत करनी है। तब मैं अलीगढ़ के अखबारों में अक्सर कुछ खबरें पढ़ा करता था। छात्रों के साथ कालेज प्रशासन ने कोई गलती की तो हंगामा, परीक्षा का हॉल मार्क नहीं मिला तो धरना, पुलिस ने किसी की रिपोर्ट नहीं लिखी तो थाने पर अनशन, भूख हड़ताल। और इसी तरह की कई खबरें। इन सभी खबरों में इन दोनों के नाम अक्सर होते थे। मैने अपने एजूकेशन बीट के रिपोर्टर अभिषेक सिंह से रंजन का नंबर लेकर उसे फोन किया। एक घंटे के भीतर हम साथ थे। वो पहली मुलाकात थी हमारी। मैने सीधे उससे अपनी योजना बताई। कहा कि मुझे तुमलोगों का साथ चाहिए। उसने कहा भैया आप तो नौकरी करते हैं, उसका क्या होगा? मैने कहा छुट्टी लेकर करूंगा, नहीं मिली तो नौकरी छोड़ दूंगा।
दूसरे दिन फिर हम साथ बैठे। तब प्रेम से मेरी पहली मुलाकात हुई। रंजन जितना सुलझा हुआ था, प्रेम उतना ही अक्खड़ और सीधी बात करने वाला था। खड़ी बात बोलता, अच्छा लगे तो ठीक बुरा लगे तो ठेंगे से। मैनें उन्हें अपनी योजना बताई कि हमें लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, गोरखपुर, पटना, मेरठ और दिल्ली के विश्वविद्यालयों में जाकर युवाओं के बीच हस्ताक्षर अभियान चलाना है और इस विरोधपत्र को राष्ट्रपित को सौंपना है। पूरे इक्कीस दिनों का सफर था। हमने 1 अक्तूबर को शुरू किया और 21 अक्तूबर को दिल्ली पहुंचना था।
प्रेम, रंजन, अमित और प्रवेश हर मौके पर जिस जीवटता से मेरे साथ खड़े रहे वो आश्चर्यजनक था। आप सिर्फ अंदाजा भर लगा सकते हैं कि ऐसे युवा जिनसे आप कभी मिले न हो आपके साथ ऐसे सफर पर चल परे जहां न खाने का वक्त हो न सोने की जगह। इस तरह मेरी लड़ाई 'हमारी' लड़ाई हो गई थी औऱ हम निकल पड़े थे अपनी आवाज को लोगों तक पहुंचाने, अपने विरोध को जीने। 21 अक्तूबर को लगभग पांच सौ और लड़कों को लेकर हम दिल्ली पहुंचे। तभी प्रेम कहा करता था कि भैया मैं चुनाव लड़ूंगा और आज वह तैयार है। हम सबको पता है कि इन्हें न तो शहर के पूंजीपतियों से कोई चंदा मिलेगा न खुद किसी एक की जेब में इतने पैसे हैं कि वो किसी का मुकाबला कर सके। इसीलिए वो मेरा हीरो है क्योंकि उसने सिर्फ कहा नहीं बल्कि कर के दिखाया। तमाम संसाधनों के अभाव में सिर्फ अपने और अपने दोस्तों के जुनून के बूते।
आज सुबह ही रंजन का फोन आया था, बता रहा था, भैया 11 मई को नामिनेशन है। आपको आना है। वह चुनाव क्षेत्र में ही था। ये वो लड़के हैं, जो न गांधी के वंशजों के साये में हैं, न संघ की छाया में। इनके सर पर न तो मार्क्स का हाथ है न समाजवाद का। न धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हैं न जाति के आधार पर उन्हें तोड़ते हैं। ये अगर जानते हैं तो सिर्फ "इंकलाब"। मुझे लगता है कि वे युवाओं की जंग लड़ रहे हैं। हो सकता है कि आपको लगे कि मैं इनके बारे में कुछ ज्यादा ही लिख रहा हूं। क्योंकि ये मेरे सफर में साथ थे। मगर एकबारगी यह सोचिए कि अगर हममे से किसी को ऐसे आदमी ने 21 दिनों के लिए चलने के लिए कहा होता जिसे हम जानते नहीं तो क्या हम जाते? शायद नहीं। हमें इनका उत्साह बढ़ाना चाहिए। एक युवा होने के नाते एक निश्छल, निष्कपट प्रयास को तो सराहा ही जा सकता है। मैं उन दोनों के फोन नंबर नीचे दे रहा हूं। अगर कोई उन्हें फोन करेगा तो उन्हें हौसला मिलेगा। हम इतना तो कर ही सकते हैं। है ना?
प्रेमपाल सिंह == 09359055566
रंजन राणा == 09368170076
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अशोक जी: आपके ब्लोग्स देखे. कृपया देखें:www.mifindia.org एक लाइन इस ईमेल pedia333@gmail.com पर भेजें ताकि आप से संपर्क कर सकूं.
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